Thursday, September 19, 2013

फहरायॆंगॆ पताका कवि काव्य की मगर,
जन-मानस भी कद्र दान हॊना चाहियॆ !!
भूषण की पालकी थी उठाई छ्त्रसाल नॆ,
कवियॊं का फिर वैसा मान हॊना चाहियॆ !!
कविता कॆ मंच पर न पढ़ॆ लतीफ़ॆ कॊई,
जारी ऎसा सख्त फ़रमान हॊना चाहियॆ !!
"राज"प्रण ठान लॆं यॆ,पुजारी भी कलम कॆ,
कदमॊं मॆं झुका आसमान हॊना चाहियॆ !!

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