Tuesday, June 13, 2023

चन्द्रशेखर आज़ाद

चंद्रशेखर "आज़ाद"
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उदयाचल से अस्तातल तक इसकी जय जयकार रही,
शिक्षा और ज्ञान की इस पर बहती सतत बयार रही,

वैभव में दुनियाँ का कोई देश न इसका सानी था,
शौर्य पराक्रम का पोषक इस भारत भू का पानी था,

यहाँ सिकंदर,सेल्युकस नें आकर घुटनें टेक दिए,
अन्य कई आक्रांता इसने जड़ उखाड़ कर फेंक दिए,

हूण कुषाण यवन अफ़गानी इसने हाथों हाथ लिए,
क्रूर मुगलिया शासन के भी इसने खट्टे दाँत किये,

किन्तु आपसी विघटन इसके शीश गुलामी धार गया,
प्रबल पराक्रम वाला भारत अंग्रेजो से हार गया,

चोर लुटेरों से जाकर खुद पहरेदार मिले थे,
घर का भेद बताने वाले घर के गद्दार मिले थे,

व्यापार बढ़ाने आये थे किन्तु विधाता बन बैठे,
और हमारे शौर्य शिरोमणि उनके त्राता बन बैठे,

ऐसा ही कुछ हुआ हिन्द में अंग्रेज़ों के आने पर,
ताज और तलवारें रख दीं जा उनके पैताने पर,

सारा भारत त्रस्त हुआ जब बर्बर अत्याचारों से,
तभी क्रान्ति का ज्वार उठा था जन जन की हुंकारों से,

आज़ादी का शंखनाद सम्पूर्ण हिन्द में गूँज उठा,
क्रांतिवीर बन बच्चा बच्चा समर भवानी पूज उठा,

गाथा आज सुनाता हूँ मैं रक्तिम क्रांति कहानी की ।।
पिस्टल और जनेऊधारी अमर वीर बलिदानी की ।।(1)

धधक रहा था सारा भारत गोरों के आतंकों से,
अगणित दंश मिले थे हमको उन ज़हरीले डंकों से,

हर ओर बवंडर छाया था कलुषित अत्याचारों का,
उसी समय दावानल धधका इन्कलाब के नारों का,

बूढ़े बाल जवान चले थे कफ़न बाँधकर खादी का,
माता बहनें निकल पड़ी थीं मन्त्र लिए आज़ादी का,

धरनें और प्रदर्शन होते गुप्त सभाएँ होती थीं,
भोर सुहागिन रहीं शाम को सूनी माँगे रोती थीं,

दमन चक्र जोरों पर था उन अंग्रेजी मक्कारों का,
चौराहों पर मर्दन होता जनता के अधिकारों का,

आवाज़ उठाने वालों को गोली का उपहार मिला,
कालापानी मिला किसी को फाँसी का गलहार मिला,

ठूँस दिए जेलों में लाखों अगणित कोड़े बरसे थे,
रोटी की तो बातें छोड़ो पानी तक को तरसे थे,

कहीं कहीं तो जेलों में कुछ ऐसे ज़ुल्म ढहाते थे,
लाचार कैदियों से सैनिक कोल्हू तक चलवाते थे,

बिलख रही थी भारत माता बँधी हुई जंज़ीरों में,
बनी बन्दिनी सिसक रही थी अपनी ही प्राचीरों में,

आज़ादी की ज्वाला भड़की बूढ़े बाल जवान चले,
करो मरो का राष्ट्र मन्त्र ले अपना सीना तान चले,

सीताराम तिवारी के घर,कोंख जगी जगरानी की ।।(2)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,

शेखर का जब जन्म हुआ तब आपस में ग्रह ऐंठे थे,
सूर्य चन्द्रमा मंगल राहू जन्म लग्न में बैठे थे,

कर्क लग्न अश्लेषा उस पर मारकेश था योग प्रबल,
मंगल सूर्य चन्द्र की युति से जातक बना अजेय सबल,

धन्य हुआ था ग्राम भाबरा जिसमें ऐसा पुष्प खिला,
धन्य हुई थी भारत माता जिसको ऐसा लाल मिला,

जंगल की गोदी में खेला जंगल उसके रक्षक थे,
निर्भीक निडर फिरता था वह,जहाँ जानवर भक्षक थे,

खूँखार भेडियों से लड़ना बचपन में ही सीख गया,
तीर कमान निशानेबाजी छुटपन में ही सीख गया,

शहर बनारस में शेखर की जब चल रही पढाई थी,
असहयोग आंदोलन नें भी ली पूरी अँगड़ाई थी,

राष्ट्रवाद की ज्वाला में तप शेखर मूँछ तरेर चला,
आज़ादी की डोली लाने भारत माँ का शेर चला,

शंखनाद कर निकल पड़ा था जोश युवाओं में भरने,
राष्ट्रधर्म के हवन कुण्ड में,साँसों की आहुति करने,

उग्र क्रान्ति में युवा वर्ग के शेखर ही सञ्चालक थे,
पन्द्रह कोड़ों की सजा मिली चौदह साला बालक थे,

हर प्रहार पर भारत माँ का शेखर ने जयघोष किया,
स्वतंत्रता के महा मंत्र का नाहर ने उद्घोष किया।।

लाज बचाने निकल पड़ा वह,सतर नदी के पानी की ।।(3)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,,,

अँग्रेजो के कुछ चमचे भी राष्ट्र भक्त थे बने हुए,
ईस्ट इंडिया के कृपा पात्र शेखर से थे तने हुए,

काकोरी घटना से शासन अब तक आग बबूला था,
सारी फौजें नाच रही थीं,शेखर पण्डित दूल्हा था,

अंग्रेज सिपाही पंडित पर,घात लगाए बैठे थे,
एक सिंह पर लाखों गीदड़,ताक लगाए बैठे थे,

शेखर का प्रण था जीते जी,इनके हाथ न आऊँगा,
प्राणों की हवि देकर माँ पर,मैं शहीद हो जाऊँगा,

राजगुरू सुखदेव भगत की वह फाँसी रुकवाने को,
चाचा नेहरू के घर पहुँचे अपनी बात सुनाने को,

बात नहीं बन पाई कुछ तो शेखर वापस लौट पड़े,
अल्फ़्रेड पार्क में जामुन से टेक लगाकर हुए खड़े,

बिना किसी लालच के घर में,फूट नहीं हो सकती है,
बिना किसी भेदी के घर में,लूट नहीं हो सकती है,

अपना वर्चस्व बढ़ाने को,कृत्य घिनौना कर डाला,
गोरों के कृपा पात्र नें शेखर का सौदा कर डाला,

अल्फ्रेड पार्क में शेखर की खबर बता दी गोरों को,
रखवाली करने वाले नें राह बता दी चोरों को,

पलक झपकते ही फौजों नें,पार्क समूचा घेर लिया,
एक दृष्टि नें शेखर की यह,सारा चित्र उकेर लिया,

गरज उठा बमतूल बुखारा,ज्यों हुंकार भवानी की ।।(4)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,,,

चलनें लगीं तड़ातड़ गोली,आसमान भी काँप गया,
अंतिम युद्ध आज है अपना,शेखर का मन भाँप गया,

आज हजारों बन्दूको का,लक्ष्य अकेला शेखर था,
और हजारों पर भारी भी,एक अकेला शेखर था,

जिस ओर निशाना साध लिया उसका दृश्य भयंकर था,
भारत माँ का बेटा शेखर बना आज प्रलयंकर था,

मानों कोई गरुड़ युद्ध में सर्प हजारों निगल रहा,
या अभिमन्यू चक्रव्यूह में प्रलय मचाने मचल रहा,

जबतक रहीं गोलियाँ शेखर लड़ता रहा दरिन्दों से,
अंतिम गोली शेष बची तो कहने लगा परिन्दों से,

सुनो व्योम के प्रहरी मेरी बात बताना जन जन को,
मातृभूमि पर अर्पित कर दें भारतवासी तन मन को,

तभी जाँघ में गोली आकर,लगी गूँज कर शेखर के,
बोली धन्य हुआ यह जीवन,चरण पूज कर शेखर के,

पड़ी रक्त की बूँद धरा पर,धरती का शृंगार किया,
भारत माता रो कर बोली,तूने कर्ज उतार दिया,

शेखर बोला प्राणदायिनी क्षमादान दे माँ मुझको,
अंग्रेजों से दिला न पाया मैं स्वतंत्रता माँ तुझको,

फिर मुट्ठी में मिट्टी लेकर,अंतिम नमन किया उसने,
लगा कनपटी से पिस्टल का,घोड़ा दबा दिया उसने,

जय जय करनें लगीं दिशाएँ,शेखर की कुरबानी की ।।(5)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,

कोयल रोई कागा रोये,रोये मधुकर मैना थे,
शेखर के इस प्राणदान पर,भीगे सबके नैना थे,

जिन गायों का दूध पिया था,मूक बधिर  वो खड़ी मिलीं,
दृष्टि लगाए देख रही थीं कुछ अचेत सी पड़ी मिलीं,

तोता तीतर और गिलहरी सबका जत्था रोया था,
शेखर जी की कुर्बानी पर पत्ता पत्ता रोया था,

उड़े उड़े से रंग हुए थे,सब तितली की पाॅंखों के।
झुके हुए थे शीश नमन में,उपवन की सब शाखों के।।

राजनीति के उन गिद्धों के,हर्ष हृदय में छाया था,
शेखर को मरवाने का यह,जिननें व्यूह रचाया था,

पीठ तने से टिकी हुई थी,लगता वह अधलेटा था,
प्रण का पक्का पंडित शेखर,भारत माँ का बेटा था,

आज़ाद जिया आज़ाद रहा,मरा नहीं आज़ाद कभी,
इस मातृभूमि के कण कण में,शामिल है आज़ाद अभी,

शेखर की हत्या के कारण शासन यूँ घबराया था
गुप्त तरीके से गोरों ने शव का दाह कराया था,

किन्तु जहाँ पर शेखर जी ने प्राण पखेरू त्यागे थे,
लोग वहाँ की पावन मिट्टी खोद खोद कर भागे थे,

वह जामुन का वृक्ष आज भी खड़ा दुहाई देता है,
उसकी साँसों में शेखर का,नाम सुनाई देता है,

गाथा गाती "राज" लेखनी,ऐसी शौर्य जवानी की ।।(6)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,,,

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डॉ राज बुन्देली (मुम्बई)
10/06/2023
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,(मित्रता)

अतुकान्त,,,,(मित्रता)
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बदले हुए भाव,
भाषा,परिभाषा,
मूल्य,चिन्तन,चेतना,
मृतप्राय संवेदना,
संस्कृति,संस्कार,
आचार-विचार,
आहार,व्यवहार,
उपदेश,परिवेश,
हाय रे मेरे देश,,,,
दुनिया को मित्रता की,
परिभाषा सिखलाने वाला,
खगोल की खोल दिखलानें वाला,
विद्याओं,कलाओं में निपुण,
कहां गए तेरे सारे गुण,
कुण्ठा,घृणा,निन्दा,
लोभ,स्वार्थ,हिंसा के
खूँ-रेज़ जबड़े,
नित प्रति मानव की सोच को,
दबोच रहे हैं
आदर्शों और मर्यादाओं को नोंच रहे है
लज्जा का चीरहरण करते
सीमित कपड़े,
गिरता हुआ
मानवता का ग्राफ
दिखाई दे रहा है साफ साफ,
इसके बावजूद,,
कायम है
अब तक मित्रता,
बदले हुए स्वरूप में,
विकास की धूप में,
देखा है मैनें,,,,
कई बार सुदामा से
आँखें चुराकर भागते हुए
कृष्ण को,
कुण्ठित कौरवों को,
देते हुए अर्जुन के सारे भेद,
है इसी बात का खेद,
कलयुग का भरत
अब नहीं लौटाना चाहता राम को
अवधपुर का सिंहासन,
सुग्रीव नें भी ठुकरा दिया है
राम से मित्रता का प्रस्ताव,
क्योंकि,,,,
रावण दे रहा है दोस्ती का दोगुना भाव,
कलयुग में
मित्र-प्रेम हो चुका है
एकदम,,,,चाइना-मेड
आज,,मित्रता का स्वरूप तो
चाय के डिस्पोजेबल गिलास के
अलावा कुछ नहीं,
रिश्तों के अर्थ बदलकर
सिर्फ 'अर्थ' के व्यूह में सिमटे हुए हैं,
नाग चन्दन के वृक्षों को छोड़कर
बबूलों से लिपटे हुए हैं,
काश !
फिर से कोई डाकू, त्यागकर हथियार,
बन जाए वाल्मीक,उठा ले हाँथों में कलम,
सृजित करे शब्दों की हुंकार,
लिखे वर्तमान की नीति का निर्धारण,
काल के बदलते चरित्र का चित्रण,
आदर्शों की परिभाषा,मानवता का मूल्य,
मर्यादा का मंथन,सत्य का स्वरूप,
सीता की गुहार,न्याय का अधिकार,
अग्नि परीक्षा का पर्याय,
अर्थात,,,,सत्य का नया अध्याय,
ताकि,,
फिर से,,कोई जटायू
असहाय अबला को बचानें हेतु
लगा दे प्राणों की बाजी,
फिर अवतरित हो महाबली हनुमान,
जो जला दे,
द्वेष,कुण्ठा,ईर्ष्या,लोभ,स्वार्थ की समूची लंका,
घर से न निकाली जाए कोई सीता,
अदालत की दहलीज़ को लाँघकर
बाहर निकल सके पवित्र गीता,
अब तो,खत्म हो प्रभु श्रीराम का वनवास,
उनके लिए हरेक दिल में बन सके आवास,
केवट का कठौता प्रेम रस की दुहाई दे ।।
कविता में कहीं तुलसीदास भी दिखाई दे ।।
कवि : डॉ."राज बुन्देली"
(मुम्बई)
09321010105 / 08080556555