Monday, March 26, 2012

बबाल किसी और का,,,,

बबाल किसी और का,,,,
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यूं भी आता है सर पॆ बबाल किसी और का ॥
दिल अपना हॊता है ख्याल किसी और का ॥

अचानक पर्स उनका खॊला, तॊ पाया हमनॆ,

है ख़त किसी और का,रुमाल किसी और का ॥

एक कंजूस नॆ हॊली, मनाई कुछ इस तरह,

मासूका थी और की, गुलाल किसी और का ॥

खुद कॊ कुबॆर समझता है न जानॆ क्यूं कर,

खज़ाना है और का,टकसाल किसी और का ॥

मंचॊ पॆ मिलता है दॆखनॆ कॊ "राज"अक्सर,

गज़ल किसी और का,कमाल किसी और का ॥

कवि-राज बुन्देली

२६/०३/२०१२

Tuesday, March 13, 2012

दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं,,,


  दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं,,,

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मॆरी तस्वीर लगाकॆ जॊ सीनॆ सॆ रखतॆ हैं

दॆखना है दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥१॥


मॊहब्बत मॆं जां लुटानॆ की बात करतॆ हैं,

मॆरॆ लहू का माप, जॊ पसीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥२॥


 यॆ और बात है, मैं ज़िंदा हूं, अब तलक,

 नज़र वॊ मुझ पॆ कई महीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥३॥


आज कल फ़रिश्तॆ कहॆ जातॆ हैं वॊ लॊग

खुद कॊ दूर जॊ डूबतॆ सफ़ीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥४॥


ज़िंदा-दिली उनकॊ , रास आयॆगी कभी,
कम-ज़र्फ़ तॊ रिश्तॆ कमीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥५॥


आतॆ हैं खातॆ-पीतॆ हैं चलॆ जातॆ हैं लॊग,
ज़मानॆ सॆ नहीं मतलब जीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥६॥


मंदिर मॆं पियॆं या फ़िर मस्ज़िद मॆं पियॆं,
उसकॆ आशिक़ मतलब पीनॆं सॆ रखतॆ हैं ॥७॥


उनकी हिफ़ाज़त ख़ुदा करता है "राज",
ख्यालॊ-किरदार जॊ नगीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥८॥

 

कवि-राज बुन्दॆली
  १३/०३/२०१२

Saturday, March 10, 2012

साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ,,,,,,,

साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ,,,,,,,
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आँचल हया का सर सॆ सरकनॆ नहीं दिया ॥
चॆहरॆ पॆ दिल का ग़म भी झलकनॆ नहीं दिया ॥

तॆबर अना कॆ, उनकॆ, कभी ख़म नहीं हुयॆ,
मिरॆ मिज़ाज़ नॆ मुझकॊ भी झुकनॆ नहीं दिया ॥

कुछ तर्कॆ-तआल्लुकात की दुश्वारियां तॊ थीं,
कुछ गर्दिशॊं नॆं भी मुझकॊ सम्हलनॆ नहीं दिया ॥

आज समंदर सा हॊता यकीनन रुतबा मॆरा,
दायरॊं नॆ कभी भी मुझकॊ पसरनॆ नहीं दिया ॥

मॆरॆ सफ़ीनॆ का मॆरा अपना नाखुदा था वॊ,
साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ उतरनॆ नहीं दिया ॥

कॊशिशॆं तॊ बॆहिसाब की अपनॊं नॆ मगर,
गैरॊं की दुआवॊं नॆं मुझकॊ मरनॆ नहीं दिया ॥

बॆखबर है वॊ ज़िन्दा हूं मैं जिसकॆ वास्तॆ,
उसकी खामॊशी नॆ इज़हार करनॆ नहीं दिया ॥

उसकॆ दामन पॆ तहरीर लिखता तॊ कैसॆ,
अश्कॊं की मानिंद मुझकॊ गिरनॆ नहीं दिया ॥

छॊड़ दॆता दर,गली,शहर,महफ़िल मगर,
उसकॆ एक वादॆ नॆ मुझकॊ मुकरनॆ नहीं दिया ॥

रॆत पर खड़ा था मॆरी मॊहब्बत का मकां,
बुनियाद पॆ पत्थर तॊ उसनॆ धरनॆ नहीं दिया ॥

बड़ा कठिन है ज़मानॆ सॆ लड़ना "राज",
बुलंद हौसलॊं नॆ मुझकॊ बिखरनॆ नहीं दिया ॥

कवि-राज बुन्दॆली
११/०३/२०१२

Friday, March 9, 2012

अधूरॆ हैं हम,,,,,,
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कहनॆ कॊ यूं तॊ, भरॆ पूरॆ हैं हम ।

मगर हकीकत मॆं, अधूरॆ हैं हम ॥


जब जैसा चाहॆ नचाता है हमकॊ,

वक्त की डुगडुगी कॆ ज़मूरॆ हैं हम ॥


सिर्फ़ कॊई छॆड़ दॆ, भला, या बुरा,

झनझना उठतॆ ऎसॆ तमूरॆ हैं हम ॥


बांटतॆ फ़िर रहॆ,नफ़रत का ज़हर,

इंसान कॆ रूप मॆं भी धतूरॆ हैं हम ॥


किस मुंह सॆ कब, किसॆ काट लॆं,

दॊ मुंह वालॆ वॊ कनखजूरॆ हैं हम ॥


गांधी कॆ बंदरॊं सॆ सीखा है "राज",

गूंगॆ हैं, बहरॆ हैं, और सूरॆ हैं हम ॥


कवि-राज बुन्दॆली
अधूरॆ हैं हम,,,,,,
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कहनॆ कॊ यूं तॊ, भरॆ पूरॆ हैं हम ।

मगर हकीकत मॆं, अधूरॆ हैं हम ॥


जब जैसा चाहॆ नचाता है हमकॊ,

वक्त की डुगडुगी कॆ ज़मूरॆ हैं हम ॥


सिर्फ़ कॊई छॆड़ दॆ, भला, या बुरा,

झनझना उठतॆ ऎसॆ तमूरॆ हैं हम ॥


बांटतॆ फ़िर रहॆ,नफ़रत का ज़हर,

इंसान कॆ रूप मॆं भी धतूरॆ हैं हम ॥


किस मुंह सॆ कब, किसॆ काट लॆं,

दॊ मुंह वालॆ वॊ कनखजूरॆ हैं हम ॥


गांधी कॆ बंदरॊं सॆ सीखा है "राज",

गूंगॆ हैं, बहरॆ हैं, और सूरॆ हैं हम ॥


कवि-राज बुन्दॆली
लहू निचोड़ कर लिखता हूं,,,,,,
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मैं सीधा सादा तोड़-मरोड़ कर लिखता हूं !
मीरो-गालिब तकी को जोड़ कर लिखता हूं !!

तिश्नालबी का पता तब चलता है मुझ को,
जब कभी मैं पैमाना तोड़ कर लिखता हूं !!


मेरे असआर से क्यूं जलते हैं चंद लोग,
उनके वास्ते काफ़िया छोड़कर लिखता हूं !!


सियासी घोड़ों को जरा कम सुनाई देता है,
लफ़्ज़ों मे इसलिये बम फोड़कर लिखता हूं !!


अम्नो-अमां की बातें लिखता हूं जब कभी,
हरेक मज़हबी को हांथ जोड़कर लिखता हूं !!


हैवानियत का चेहरा दिखाता हूं मैं मगर,
खूं-खंज़र कातिल नाक सिकोड़कर लिखता हूं !!


मेरी गज़ल आम आदमी की गज़ल होती है,
मैं अपने वज़ूद को झिझोड़ कर लिखता हूं !!


मेरे लफ़्जों मे कसक यूं आती है "राज़",
अपने ज़िगर का लहू निचोड़ कर लिखता हूं !!

"राज़बुंदेली"