Thursday, September 19, 2013

भारत माँ की पीड़ा,,,,,,

भारत माँ की पीड़ा,,,,,,
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फूलॊं कॆ गुल-दस्तॊं मॆं जब,अंगारॆ जय बॊल रहॆ हॊं ॥
मानवता कॆ हत्यारॆ जब, गरल द्वॆष का घॊल रहॆ हॊं ॥
सत्ता कॆ आसन पर बैठॆ, कालॆ बिषधर डॊल रहॆ हॊं ॥
जनता की आहॊं कॊ कॆवल,कुर्सी सॆ ही तॊल रहॆ हॊं ॥

तब आज़ादी  की परिभाषा, भी लगती यहाँ अधूरी है ॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह,का आना बहुत जरूरी है ॥१॥

जब लॊक-तंत्र की आँखॊं सॆ, खारॆ धारॆ बरस रहॆ हॊं ॥
मज़दूरॊं कॆ बच्चॆ दिन भर,दॊ रॊटी कॊ तरस रहॆ हॊं ॥
वह अनाज का शिल्पी दॆखॊ, रॊतॆ-रॊतॆ मर जाता है ॥
आनॆ वाली पीढ़ी पर भी, अपना कर्जा धर जाता है ॥

उस बॆचारॆ  कॆ हिस्सॆ  मॆं, कॆवल उस की  मज़दूरी है ॥२॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह, का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

दिल्ली की खूनी सड़कॊं पर,दुर्यॊधन का आतंक फलॆ ॥
किस मनमॊहन कॆ बलबूतॆ,द्रॊपदी आज नि:शंक चलॆ ॥

घर सॆ बाहर इज़्ज़त उसकी, अब लगी दाव मॆं पूरी है ॥३॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह, का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

उन अमर शहीदॊं कॆ सारॆ,सपनॆ चकना चूर हुयॆ हैं ॥
आज़ादी  कॆ रखवालॆ यॆ,जब सॆ कुछ लंगूर हुयॆ हैं ॥
मक्कारी की सारी सीमा, यॆ अपघाती लाँघ चुकॆ हैं ॥
घॊटालॊं कॆ कवच दॆखियॆ, यॆ सिरहानॆ बाँध चुकॆ हैं ॥

ऎसॆ जयचंद मिलॆ हमकॊ,मुख मॆं राम बगल मॆं छूरी है ॥४॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

सीना तानॆ खड़ा कुहासा, जब सूरज कॊ धमकाता हॊं ॥
जहाँ कलम का साधक भी, पैसॊं पर गीत सुनाता हॊं ॥
भारत की पीड़ा  का गायक, मैं इसकी पीड़ा  गाऊँगा ॥
इन्कलाब का नारा लॆकर,घर-घर मॆं अलख जगाऊँगा ॥

अंगारॊं  की  भाषा  लिखना, अब मॆरी भी मज़बूरी है ॥५॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कवि-"राज बुन्दॆली"
१६/०७/२०१३

गज़ल,,,,,,,,,,,,,,,

वही रातॆं  वही आहॆं, वही ख़त संग आँसू भी ॥
सतातॆ हैं हमॆं मिलकॆ, मुहब्बत संग आँसू भी ॥१॥

कभी हँसना कभी रॊना,कभी खॊना कभी पाना,
सदा मुँह मॊड़ लॆतॆ हैं, तिज़ारत संग आँसू भी ॥२॥

हमारॆ नाम का चरचा, जहाँ दॆखॊ वहाँ हाज़िर,
हमॆं दॆतॆ बड़ी तक़लीफ़ॆं,शिकायत संग आँसू भी ॥३॥

सदा इल्ज़ाम दॆता है, ज़माना बॆ-वफ़ा कह कॆ,
नहीं अब साथ दॆतॆ यॆ, इबादत संग आँसू भी ॥४॥

नहीं हॊती ख़ुदा तॆरी, दुआ औ बन्दगी मुझसॆ,
भला कैसॆ सँभालूं मैं, तिलावत संग आँसू भी ॥५॥

कभी तॊड़ा कभी जॊड़ा,गमॆ-दिल का यही रॊना,
हक़ीमॊं की बदौलत हैं, तिबाबत संग आँसू भी ॥६॥

इरादॆ ज़िन्दगी कॆ हम, नहीं समझॆ नहीं जानॆ,
पड़ॆ भारी सराफ़त पर, बगावत संग आँसू भी ॥७॥

निभा लॊ दुश्मनी अपनी,अभी साँसॆं बकाया हैं,
हमॆं अब रास आयॆ हैं, अदावत संग आँसू भी ॥८॥

यही हमराह हैं अब तॊ, इबादत जुस्तजू तॆरी,
मुझॆ मंजूर हैं बॆ-शक, इनायत संग आँसू भी ॥९॥

वही चाहत वही उल्फ़त,वही बरसात का मौसम,
वही  उम्मीद तन्हाई, ज़ियारत  संग आँसू भी ॥१०॥

वही आदत वही हालत, फ़टा कुरता बढ़ी दाढ़ी,
घटी सॆहत लुटी चाहत, शराफ़त संग आँसू भी ॥११॥

लुटॆ सपनॆं मिटॆ अरमां, अमीरी नॆ दियॆ कॊड़ॆ,
रुलातॆ खूब हैं हम कॊ, हरारत संग आँसू भी ॥१२॥

हमारॆ पास मॆं क्या है,न दौलत है न ताक़त है,
ख़िलाफ़त मॆं खड़ॆ दॆखॊ,सियासत संग आँसू भी ॥१३॥

वही मतला वही मक्ता, वही बह्र-ए- रवानी है,
वही अरक़ान मॆं दॆखॊ, हिफ़ाज़त संग आँसू भी ॥१४॥

सदाकत सॆ निभाता है,सदा किरदार अपना वॊ,
झरॆ हैं "राज"कॆ कितनॆं,क़यामत संग आँसू भी ॥१५॥

कवि-"राज बुन्दॆली"
०५/०८/२०१३
अतीत,,कॆ बिखरॆ मॊती
भविष्य कॆ लियॆ
वर्तमान कॆ धागॆ मॆं
पिरॊतॆ-पिरॊतॆ !
दम तॊड़ दॆता है
मानव,
कभी सॊतॆ सॊतॆ,,
कभी रॊतॆ रॊतॆ,,,
अंतत:विलीन हॊ जाता है,,,,
अतीत मॆं,कहलानॆ लगता है
इतिहास का,,हस्ताक्षर,,,,,,,,,

"कवि-राज बुन्दॆली"

कुण्डलिया छन्द =

कुण्डलिया छन्द =
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सच्चाई कॊ प्रॆम सॆ, कर लॊ तुम स्वीकार !
सदा दम्भ कॆ शीश पर, करतॆ रहॊ प्रहार !!
करतॆ रहॊ  प्रहार, पनपनॆ कभी  न पायॆ !
सुन्दर सहज विचार, सभी वॆदॊं  नॆं गायॆ !!
कहॆं "राज"कविराज,करॊ जग मॆं अच्छाई !
नाम अमर हॊ जाय, निभायॆ जॊ सच्चाई !!१!!

ताना मारॆ तान कर, निन्दक मिलॆ पुनीत !
जीत गयॆ तॊ जीत है, हार गयॆ भी जीत !!
हार गयॆ भी जीत, भला अपना  ही हॊता !
बिन साबुन औ नीर, चरित्र यही है धॊता !!
कहॆं "राज"कविराज,बड़ा ही बिकट ज़माना !
निन्दक रख लॊ पास, सदा मारॆ जॊ ताना !!२!!

फूला फला उजाड़ कर, रहा ठूँठ कॊ सींच !
सागर मुक्ता खॊजता, मूरख आँखॆं  मींच !!
मूरख आँखॆं  मींच, सिखाता तीर चलाना !
लाया घॊंघा खींच,कहॆ मिल गया खज़ाना !!
कहॆं"राज"कविराज, झुलायॆ सब कॊ झूला !
मॆढ़क सा  टर्राय, दम्भ मॆं  इतना फूला !!३!!

महँगाई मॊटी  हुई, पतला  हुआ पग़ार !
पति-पत्नी यॆ रात भर, करतॆ रहॆ विचार !!
करतॆ रहॆ  विचार, चलॆ कैसॆ  घर खर्चा !
उलट-पलट हर बार,रात भर जारी चर्चा !!
कहॆं "राज" कविराज,मुसीबत भारी आई !
सब्जी रही चिढ़ाय, बढ़ी इतनी महँगाई !!४!!

कवि-राज बुन्दॆली"
०६/०७/२०१३

गज़ल:

गज़ल:
पैदा गाँधी गौतम बुद्ध करॊ,,,,,,
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अपना-अपना मन प्रथम विशुद्ध करॊ !!
फिर पैदा गाँधी  गौतम  बुद्ध  करॊ !!१!!

नफ़रत  की  धारा  बहनॆ सॆ  पहलॆ,
कुछ भी हॊ पर उसकॊ अवरुद्ध  करॊ !!२!!

मन सॆ कल्मषता  ही मिट जायॆगी,
बस अपना अपना  ज्ञान प्रबुद्ध करॊ !!३!!

सारी  पीड़ाऒं  का जनक  यही है,
मॆरी मानॊ मन  कॊ मत  क्रुद्ध करॊ !!४!!

अपनॆ पुरखॊं कॆ आँगन की पूजित,
मत पावन तुलसी आज अशुद्ध करॊ !!५!!

सच्ची प्रीत निभा, ना पायॆ  जग मॆं,
करतॆ हॊ  धॊखा, वह तॊ  शुद्ध करॊ !!६!!

कायर बन कर मरनॆ  सॆ अच्छा है,
हथियार उठाऒ, डट कर युद्ध  करॊ !!७!!

अस्त्र  तुम्हारा है "राज" कलम यह,
आवाज़  सदा अन्याय  विरुद्ध करॊ !!८!!

कवि - "राज बुन्दॆली"
०५/०७//२०१३

सुन मॆरॆ लल्ला,,,,,

सुन मॆरॆ  लल्ला, मुन्ना, राजा, छौना !!
बिन माँगॆ दूँगी तुझकॊ,चंद्र खिलौना !! सुन मॆरॆ,,,,,,,,

तॆरी किलकारी सॆ जीवन,मॆं खुशहाली आई,
तॆरॆ आनॆ सॆ इस बगिया, मॆं हरियाली छाई,

नहीं रूठना मॆरॆ बॆटॆ,और कभी न रॊना !!१!! सुन मॆरॆ,,,,,,,,

सॊ जा मॆरॆ राज दुलारॆ, सुन कर मॆरी लॊरी,
आसमान सॆ आ जायॆंगी,मिलनॆं परी चकॊरी,

शुभ्र धवल झूलॆ मॆं, तारॊं जड़ा बिछौना !!२!! सुन मॆरॆ,,,,,,,,

इक किलकारी पर तॆरी, बार-बार बलि जाऊँ,
तॆरॆ कारण दुनिया मॆं, मैं सबसॆ धनी कहाऊँ,

काजल कॆ टीकॆ पर,लगॆ न जादू टॊना !!३!! सुन मॆरॆ,,,,,,,,

हॊ जा बड़ा दॆख फिर,नवल दुल्हनियाँ लाऊँ,
जग की खुशियाँ दॊनॊं,पर खुलॆ हाँथ बरसाऊँ,

तू मॆरी दौलत पूँजी, तू ही चाँदी सॊना !!४!! सुन मॆरॆ,,,,,,,,

उँगली थाम चलॆ फिर, हाँथ थाम तू चलना,
बूढ़ी हॊ जाऊँ जब मैं, करना मुझसॆ छल ना,

मॆरी आशिष सॆ हॊगा,तॆरा पूत सलॊना !!५!! सुन मॆरॆ,,,,,,,,
बिन माँगॆ दूँगी तुझकॊ, चंद्र खिलौना !! सुन मॆरॆ,,,,,,,,

कवि-"राज बुन्दॆली"
०१/०७/२०१३

सच,तू सच मॆं,,,

सच ! तू सच मॆं, सच-सच बतला,क्यॊं न तुझसॆ प्यार करूँ ॥

तॆरी कटुता कॊ जग मॆं, कॊई शमन नहीं कर पाता,
तॆरी ग्रीवा मॆं बाहॆं डाल, कॊई भ्रमण नहीं कर पाता,
भाग रहा जग दूर दूर, क्यॊं तुझसॆ कुछ तॊ बतला,
दुविधा का विषय यही, है जग बदला या तू बदला,

दुत्कार रहा सारा जग तुझकॊ, क्यॊं न जग सॆ तक़रार करूँ ॥१॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

फिर तॆरॆ हॊतॆ जग मॆं, कैसॆ असत्य का राज्य हुआ,
तॆरी कुटिया टूटी-फूटी, असत्य अचल साम्राज्य हुआ,
सब हुयॆ उपासक उस कॆ, तॆरा नाम नहीं लॆनॆ वाला,
आज झूठ कॆ बाजारॊं मॆं, तॆरा दाम नहीं दॆनॆ वाला,

यॆ दुनिया तॆरा सम्मान गिरायॆ,मै क्यॊं न तॆरा सत्कार करूँ ॥२॥
सच, तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

तॆरी परछाई सॆ भी दूर, भागतॆ दॆखॆ मैनॆं लॊग यहाँ,
तॆरॆ कारण लाखॊं भूँख, फांकतॆ दॆखॆ मैनॆं लॊग यहाँ,
असहाय पड़ा तू भूखा-प्यासा,दॆख रहा हूँ तॆरी काया,
महा-विलास की चौखट पर,नर्तन करती झूँठी माया,

संज्ञा-हीन ऋचायॆं तॆरी मैं कैसे, मूक बधिरता स्वीकार करूँ ॥३॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

हॆ प्रबल प्रतापी सत्य-दॆव, है अम्बर सॆ ऊँचा रूप तॆरा,
सप्त-सिन्धु सॆ भी गहरा, दिनकर सॆ तॆज स्वरूप तॆरा,
फिर क्यॊं अँधियारॆ मॆं अपना,अस्तित्व छुपायॆ जीता है,
मॆरी तरह हलाहल जग का, तू भी मौन व्रती बन पीता है,

झंकृत कर दॆ मन कॆ तार-तार, मैं सदा सत्य हुंकार करूँ ॥४॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कवि - "राज बुन्दॆली"
०१/०७/२०१३

एक गीत,,,

एक गीत,,,
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आऒ मॆरी सब करॊ आलॊचना, मुझ पर उपकार तुम्हारा हॊगा !!

मैं नालॆ का कीचक जल, बहता हूँ तॊ बहनॆं दॊ,
मैं चक्र-पात की आँधी मॆं,ढ़हता हूँ तॊ ढ़हनॆ दॊ,
बहुत सुनी इन कानॊं सॆ,अब और बड़ाई रहनॆं दॊ,
प्रसव-पूर्व की अंतिम पीड़ा,  मुझकॊ ही सहनॆ दॊ,

आघात करॊ इस शिला-खण्ड पर, पूज्य प्रहार तुम्हारा हॊगा !!१!!
आऒ मॆरी सब करॊ आलॊचना, मुझ पर उपकार,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कलमकार हॊनॆ का मैनॆ, जानॆ कैसा यॆ भ्रम पाला,
जॊ दॆखा जिया वही फिर, उठा कलम लिख डाला,
मर्यादाऒं कॆ कारा-गृह मॆं, बंदी रह कर गीत रचॆ,
कविता का हाला जग कॆ,उदर-पिण्ड मॆं कहाँ पचॆ,

जग-निंदा का प्रथम पात्र मैं,  निंदक अधिकार तुम्हारा हॊगा !!२!!
आऒ मॆरी सब करॊ आलॊचना, मुझ पर उपकार,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

आभास मुझॆ था पूरा मैं,मीरा की करुण पुकार नहीं,
पिया गरल क्यॊं जग का,जब मैं शंकर अवतार नहीं,
यह अपराध भला जग मॆरा, भूलॆगा तॊ क्यॊं भूलॆगा,
मॆरॆ कष्टॊं कॆ झूलॆ मॆं जग,पागल बनकर क्यॊं झूलॆगा,

जितना मिलॆ अनादर मुझकॊ,  उतना सत्कार तुम्हारा हॊगा !!३!!
आऒ मॆरी सब करॊ आलॊचना, मुझ पर उपकार,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कितनी पीड़ाऒं कॊ पीता हूँ,उससॆ तुमकॊ क्या लॆना,
कर्तव्य तुम्हारा कॆवल इतना,मुझकॊ मॆरी पीड़ा दॆना,
कुछ फ़र्क नहीं पड़ता कल, मॆरॆ हॊनॆ या न हॊनॆ सॆ,
कहाँ समय है यहाँ किसी कॊ, अपना दुखड़ा रॊनॆ सॆ,

सारा अँधियारा मॆरॆ नाम लिखॊ, उजियारा संसार तुम्हारा हॊगा ॥४॥
आऒ मॆरी सब करॊ आलॊचना, मुझ पर उपकार,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कवि-"राज बुन्दॆली"
०१/०७/२०१३

रॊला छन्द

 रॊला छन्द 
शारद का वरदान, मिला अपनॆ  उपवन  कॊ !!
काव्य ज्ञान रसखान,मिलॆ दॆखॊ जन-जन कॊ !!
मन मॆं  है विश्वास, जलाया  दीप सृजन का !!
हॊगा ज्ञान प्रकाश, भरॊसा है "कवि-मन" का !!१!!


यह कविता का मंच,सभी कॊ है दुलराता !!
धॊखा घात प्रपंच,नहीं कतिपय सिखलाता !!
ऊँच नींच का भॆद, न कभी पनपनॆ पाता !!
कविता धर्म सँदॆश, काव्य-मंथन ही भाता !!२!!


राजा हॊ या रंक, नहीं कुछ  भॆद यहाँ है !!
कहना बात निशंक, सदा संकल्प जहाँ है !!
नहीं द्वॆष का डंक,सुमति का वास यहाँ है !!
नहीं भाव मॆं पंक, भला यह और कहाँ है !!३!!

रचना की भरमार, यहाँ पर नई नवॆली !!
बरसाती हैं प्यार, यहाँ पर  कई सहॆली !!
हर्ष और उल्लास, भावना की कस्ती मॆं !!
है प्यारा अहसास, ठिठॊली मॆं मस्ती मॆं !!४!!

रात रात भर जाग,  हमारॆ प्यारॆ भाई !!
करतॆ कितना त्याग, हमारॆ प्यारॆ भाई !!
भर कुंठित सा राग, हमारॆ प्यारॆ भाई !!
कुछ एकल सॆ भाग, हमारॆ प्यारॆ भाई !!५!!

खॊली नई दुकान, लगाकर तम्बू खम्भा !!
खॊज रहॆ श्रीमान, बसायॆ हिय मॆं दम्भा !!
ना तॊ मिलॆ कुबॆर,ना ही टिप्पणी रम्भा !!
पानी डूबत सॆर, दॆख कर हुआ अचम्भा !!६!!

आऒ भाई आज, कसम यॆ हम सब खायॆं !!
माँ शारद कॆ काज, समर्पित मन हॊ जायॆं !!
है अपना बड़भाग,मिली जॊ नर-तन काया !!
छॊड़ कपट का राग,तजॊ स्वारथ की छाया !!७!!

समता का आभास, कंठ सॆ मीठी बानी !!
अटल रहॆ विश्वास, भलॆ हॊ खींचा तानी !!
हॊगा जग कल्यान,इसी कविता सॆ भाई !!
मानस किया बखान,रची तुलसी चौपाई !!८!!

कॊमल सुयश विचार,भरॆं उर अंतर-तर मॆं !!
काव्य-सुधा रस-धार,बहॆ सबकॆ घर-घर मॆं !!
कविता बाग बहार, सजायॆं बन कर माली !!
कलम बनॆ हथियार, करॆं हम भी रखवाली !!९!!

अधरॊं पर थॆ याद, तरानॆ भारत माँ कॆ !!
मरकर भी आबाद,दिवानॆ भारत माँ कॆ !!
गातॆ  गातॆ गीत, बसन्ती रँग  दॆ चॊला !!
छंद हुयॆ कुछ मीत,विधा प्यारी है रॊला !!१०!!

कवि-"राज बुन्दॆली"
२८/०६/२०१३

गज़ल,,,,,,

मौज़-मस्ती इश्क़-उल्फ़त मॆं रुमानी और भी है ॥
डूब कर सुनना अभी आगॆ कहानी और भी है ॥१॥

सिर मुँड़ातॆ ही पड़ॆ ऒलॆ गज़ब कॆ हाय तौबा,
हाल-खस्ता जॆब खाली कुछ निशानी और भी है ॥२॥

ख्वाब,आँसू,सिसकियां हैं,आज सारॆ यार अपनॆ,
कह रहॆ हैं लॆ मजा लॆ ज़िन्दगानी और भी है ॥३॥

आँसुऒं की बाढ़ आई है अभी सॆ राम जानॆं,
लॊग कहतॆ हैं अभी तॊ रुत सुहानी और भी है ॥४॥

जॊ लिखा मैनॆं किताबॊं मॆं पढ़ा है आपनॆ वॊ,
याद लॊगॊं कॊ बहुत सारा ज़बानी और भी है ॥५॥

चंद साँसॆं ज़िंदगी की कब ज़माना छीन लॆगा,
आप पॆ अपनी अभी तॊ मॆज़बानी और भी है ॥६॥

रात बाकी है अभी सॆ आप नाहक रूठ बैठॆ,
दॊ दिलॊं कॆ दरमियाँ यॆ छॆड़खानी और भी है ॥७॥

ज़िंदगी दुस्वार हॊती जा रही है आज सॊचॊ,
हैं हवायॆं तल्ख सर पॆ आग पानी और भी है ॥८॥

एक तॊ तहज़ीब अच्छी है नहीं इन्सान मॆं अब,
लाद करकॆ फ़िर रहा वॊ बद-गुमानी और भी है !!


यॆ फ़ज़ायॆं मुस्कुराती अब दिखाई दॆं वहां सॆ,
रंग-गहरा तॊ दिलॊं मॆं आसमानी और भी है ॥९॥

छॊड़ दॆ कांटॊ भरॆ व्यापार करना लौटकर आ,
अम्न की खुशबू यहाँ पॆ ज़ाफ़रानी और भी है ॥१०॥

ज़िन्दगी सॆ है हमॆशा मात खाई "राज" हमनॆं,
है मज़ॆ की बात कितनी मात खानी और भी है ॥११॥

कवि-"राज बुन्दॆली"
१७/०९/२०१३

गज़ल,,,,,,,,,

इस जीवन कॆ नख़रॆ, नाँज़ उठाऊँ कब तक ॥
नागफ़नी कॊ सीनॆ, सॆ चिपकाऊँ कब तक ॥१॥

कुछ कठिन सवालॊं कॆ, उत्तर खॊज रहा हूँ,
मन की घायल मैना, कॊ भरमाऊँ कब तक ॥२॥

राम बचा लॊ मुझकॊ, इस झूँठी  दुनिया सॆ,
सबकी हाँ मॆं हाँ मैं, और मिलाऊँ कब तक ॥३॥

पागल समझ रही है, दुनिया सच ही हॊगा,
पागल बनकर मैं यॆ, रॊग छुपाऊँ कब तक ॥४॥

पागल बन कर मैनॆं, खूब सुनीं हैं गाली,
राग पुराना बॊलॊ, मैं दुहराऊँ कब तक ॥५॥

कौन भला रॊता है, सावन कॆ रॊनॆ सॆ,
मॆरा ही सावन मैं, ब्यर्थ गँवाऊँ कब तक ॥६॥

अपना अपना तुम भी, फ़र्ज निभाऒ भाई,
सारा फ़र्ज अकॆलॆ, और निभाऊँ कब तक ॥७॥

सॊतॆ हॊ या फ़िर यॆ, सॊनॆ का नाटक है,
कब जागॊगॆ तुमकॊ, रॊज जगाऊँ कब तक ॥८॥

अपनी धुन कॊ यॆ कब, मतवाली बदलॆंगी,
इन भैंसॊं कॆ आगॆ, बीन बजाऊँ कब तक ॥९॥

"राज" बदल जाता है,रुख़ रॊज हवाऒं का,
तूफ़ानॊं की ज़द मॆं, दीप बचाऊँ कब तक ॥१०॥
कवि- "राज बुन्दॆली"
१०/०७/२०१३

गज़ल,,,,,,,,,

गज़ल,,,,,,,,,
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कहीं हमनॆ सुना था इस, ज़मानॆ मॆं हिफ़ाज़त है !!
यहाँ हर एक कॆ दिल मॆं, अदावत ही अदावत है !!१!!

उठा रक्खा चराग़ॊं नॆं, कभी सॆ आसमां सर पर,
सुना है आँधियॊं सॆ चल, रही उनकी बग़ावत है !!२!!

अदा कॆ साथ दॆतॆ हैं, दुहाई वॊ सदाक़त की,
बड़ॆ कम-ज़र्फ़ हैं दॆखॊ, यही उनकी लियाक़त है !!३!!

कभी बदला नहीं करती,लकीरॊं सॆ लुटी किस्मत,
मिला है नाम भी सब कॊ, जिसॆ जैसी महारत है !!४!!

फ़ना हॊकॆ रहूँगा मैं, दिलॊं कॆ दरमियां सुन लॊ,
भुलावॊगॆ मुझॆ कैसॆ, खरी मॆरी इबादत है !!५!!

बुला लॆना कभी मुझकॊ, सदां दॆकॆ चला आऊँ,
भुला दॊगॆ अग़र दिलसॆ,नहीं तुमसॆ शिकायत है !!६!!

लियॆ हूँ याद उनकी यॆ, निसानी है मुहब्बत की,
कभी तॊ काम आयॆगी, मुझॆ इसकी ज़रूरत है !!७!!

सफ़ीना बीच मॆं है तॊ, अभी दम-ख़म नहीं टूटा,
समंदर सॆ जरा कह दॊ, हमॆं तूफ़ां कि आदत है !!८!!

कहा था आपनॆ कह दॊ,हक़ीक़त आज सारी तुम,
हमारी बात सॆ इतनी,किसी कॊ क्यूँ ख़िलाफ़त है !!९!!

हमीं नॆं "राज" खॊलॆ हैं, मुखौटॊं सॆ हटा चॊंगा,
कई बाज़ार दॆखॆ हैं, जहाँ बिकती शराफ़त है !!१०!!
कवि - "राज बुन्दॆली"
१६/०६/२०१३
फहरायॆंगॆ पताका कवि काव्य की मगर,
जन-मानस भी कद्र दान हॊना चाहियॆ !!
भूषण की पालकी थी उठाई छ्त्रसाल नॆ,
कवियॊं का फिर वैसा मान हॊना चाहियॆ !!
कविता कॆ मंच पर न पढ़ॆ लतीफ़ॆ कॊई,
जारी ऎसा सख्त फ़रमान हॊना चाहियॆ !!
"राज"प्रण ठान लॆं यॆ,पुजारी भी कलम कॆ,
कदमॊं मॆं झुका आसमान हॊना चाहियॆ !!