Monday, August 6, 2012

फ़्रॆंडशिप सॆ,,,,रक्षा-बंधन,,,,तक,

फ़्रॆंडशिप सॆ,,,,रक्षा-बंधन,,,,तक,
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मुर्गॆ नॆं, मुर्गी कॊ, दॆखा,
मुर्गी नॆं, मुर्गॆ कॊ, दॆखा,

मुर्गॆ नॆं दांई,आंख दबाई,
मुर्गी भी बॆ-हद शरमाई,

दॊनॊं नॆं किया,कुकडूं कूं,
फ़िर हॊ गया प्यार शुरू,

फ़्रॆंडसिप बॆल्ट भी बांधा,
दॊनॊं नॆ यॆ रिश्ता साधा,

वॆलॆंटाइन मॆं, नाचॆ-झूमॆ,
कई जगह साथ मॆं घूमॆं,

हुई सगाई,विवाह बन्धन,
दॊ सॆ एक हुयॆ तन मन,

यॆ दॊनॊ प्यार कॆ दीवानॆ,
अपनी मर्जी कॆ मस्तानॆ,

इस दुनियां सॆ अनजानॆ,
गातॆ फ़िरतॆ प्रॆम- तरानॆ,

चार बरस खुशी मॆं बीतॆ,
प्रॆम-सुधा नित वह पीतॆ,

फ़िर एक कसाई आया,
मुर्गॆ का जॊ दाम लगाया,

मुर्गी अनहॊनी भांप गई,
रॊम-रॊम वह कांप गई,

अंदर सॆ वह बाहर आई,
चॊंच दबाकर राखी लाई,

रॊतॆ-रॊतॆ वॊ मुर्गी बॊली,
फ़ैलाती हूं अपनी झॊली,

त्यॊहार राखी का प्यारा,
दुनिया मॆं, सबसॆ न्यारा,

तुम कॊ राखी बांध रही,
सुहाग अपना मांग रही,

बात समझ मॆं जब आई,
कसाई, बन गया है भाई,

एक मुर्गी नॆ भाई माना,
मॆरा-धर्म है,लाज बचाना,

प्राणी रिश्तॆ, जॊड़ रहॆ है,
मानव रिश्तॆ, तॊड़ रहॆ है,

भावॊं कॊ उल्टा मॊड़ रहॆ,
आपस मॆं सिर फ़ॊड़ रहॆ,

खॆल रहॆ खून, की हॊली,
मुंह दॆखी वॊ बॊलॆं बॊली,

मुझकॊ राखी नॆ राह दिखाई है,
मैनॆ आज नई ज़िन्दगी पाई है,

मॆरॆ मन की आंखॆं खॊल गई है,
वॊ मुर्गी मुझसॆ,यह बॊल गई है,

मैं मॆहनत मज़दूरी कर-कर कॆ,
खॆतॊं मॆं रात-दिन, मर मर कॆ,

अपनॆ बीबी बच्चॊं का,मैं पॆट कैसॆ भी भरूंगा ॥
मुझॆ कसम राखी की,जीव-हत्या नहीं करूंगा ॥

कवि-राज बुन्दॆली,,,,,,,
५/८/२०१२

Friday, July 27, 2012


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जी हुज़ूर क्या करना,,,
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दिल कॊ इतना भी,मग़रूर क्या करना ॥
ख्वाब किसी कॆ हॊं,चूर-चूर क्या करना ॥१॥

दिल कॆ कॊनॆ मॆं, जगह दॆ दी जिसकॊ,
फ़िर उस कॊ दिल सॆ, दूर क्या करना ॥२॥

दिल का रिश्ता दिल सॆ,निभायॆं साहब,
फ़क़्त दिखावॆ का,यॆ दस्तूर क्या करना ॥३॥

मालूम है वह चाहत, है किसी और की,
दीदार खिड़की सॆ यूं,घूर-घूर क्या करना ॥४॥

पीनॆ की मनाही नहीं, निगाहॊं का ज़ाम,
पी कॆ दिल कॊ यूं, मख़मूर क्या करना ॥५॥

जिसकॆ मुकद्दर मॆं हैं,यॆ मिलॆंगॆ उसीकॊ,
हमॆं तुम्हारॆ यॆ मीठॆ, अंगूर क्या करना ॥६॥

हर कॊई करता है, जिस का तज़किरा,
उसका क़लाम मॆं, मज़कूर क्या करना ॥७॥

कामयाबी मॆहनत कॆ,बल पॆ मिलती है,
इसकॆ वास्तॆ नाहक, फ़तूर क्या करना ॥८॥

हीरॆ की शिफ़त है तॊ,छिप नहीं सकती,
कांच का टुकड़ा है ग़र, नूर क्या करना ॥९॥

आम बात हॊ या, फ़रमान शहंशाह का,
बात वाज़िब नहीं तॊ,मंज़ूर क्या करना ॥१०॥

सरकारी मुलाज़िम है, वॊ खुदा तॊ नहीं,
हर बात पॆ उसकी,जी हुज़ूर क्या करना ॥११॥

फ़क्त तॆरॆ नाम सॆ यॆ, मुकम्मल हॊ गई,
इस गज़ल कॊ अब,मामूर क्या करना ॥१२॥

नॆक-नामॊं मॆं शरीक़,हॊ गया नाम जब,
इससॆ ज्यादा इसकॊ,मशहूर क्या करना ॥।१३॥

गज़ल उम्दा हॊगी तॊ,दाद मिलॆगी"राज"
टैंग करकॆ लॊगॊं कॊ,मज़बूर क्या करना ॥१४॥

कवि-राज बुन्दॆली
२४/०७/२०१२

कुछ शब्दार्थ,,,,,,,,,
मग़रूर=घमंड,
मख़मूर=नशे में चूर,
तज़किरा=चर्चा,जिक्र,
मज़कूर=विवरण,
फ़तूर=खुराफ़ात,
मामूर=पूर्ण,

Thursday, June 7, 2012

हल्दीघाटी..........

हल्दीघाटी..........
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वही मिला है जग मॆं सब कॊ, जिसनॆं जॊ कुछ बॊया,
मिला ललाट कलंक किसी कॊ,कॊई सम्मान संजॊया,
मात-पिता की सॆवा सॆ बढ़कर, और ना कॊई पूजा है,
निज राष्ट्र-धर्म सॆ ऊँचा जग मॆं, धर्म ना कोई दूजा है,

प्राणॊं की बलि चढ़ जायॆ, मान झुकॆ ना माटी का !!
कंकड़- कंकड़ बॊल रहा है, तुमसॆ हल्दीघाटी का !!१!!

राँणा प्रताप कॆ भालॆ नॆं,लिख दी दॆखॊ अमर कहानी,
स्वाभिमान मॆं मिट ना जायॆ,है उसकी ब्यर्थ जवानी,
पद्मिनियॊं नॆं जौहर करकॆ,अपनी आन नहीं जानॆं दी,
स्वाभिमान कॆ सूरज की, कदापि शान नहीं जानॆं दी,

खौफ़ ना खाया चॆतक नॆं, गजराजॊं की कद काठी का !!२!!
कंकड़- कंकड़ बॊल रहा है,तुमसॆ.............................

राजस्थान की धरती नॆं,रणवीरॊं की फ़सल उगाई है,
लाखॊं बॆटॆ बलिदान हुयॆ, तब जाकर आज़ादी पाई है,
इतिहास कॆ पन्नॊं पर, तब यह उन्नत  भाल  हुई है,
वीरॊं कॆ शॊणित सॆ जब, पूरी हल्दीघाटी  लाल हुई है,

नाम अमर हॊ जाता जग मॆं, वीरॊं की परिपाटी का !!३!!
कंकड- कंकड बॊल रहा है,तुमसॆ.....................

वंदन है युवा शक्ति, आगॆ आऒ, अब आगॆ आऒ,
राष्ट्र-धर्म की रक्षा मॆं, तलवार उठाऒ ढ़ाल उठाऒ,
जन-जन मॆं दॆश-भक्ति का,तुम अद्भुत संचार भरॊ,
मुक्त हृदय सॆ इस भारत,मां की जय-जयकार करॊ,

कर्ज़ चुकाना हॊगा हमकॊ, उस दाल और बाटी का !!४!!
कंकड़- कंकड़ यह बॊल रहा है,तुमसॆ......................

कवि-राज बुन्दॆली
०८/०६/२००८

Wednesday, May 30, 2012

चंद्रशॆखर "आज़ाद"
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सूरज कॆ वंदन सॆ पहलॆ, भारत का वंदन करता था,
इसकी पावन मिट्टी सॆ,माथॆ पर चन्दन करता था,
इसकी गौरव गाथाऒ का,हर क्षण-गायन करता था,
आज़ादी की रामायण का,नित्य पारायण करता था,

संपूर्ण क्रांन्ति का भारत मॆं, शायद जन-नाद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥१॥

भारत माँ का सच्चा बॆटा, आज़ादी का पूत वही था,
उग्र-क्रान्ति की सॆना का,संकट-मॊचन दूत वही था,
आज़ादी की खातिर जन्मा, आज़ादी मॆं जिया मरा,
अंग्रॆजी तॊपॊं की बौछारॊं सॆ,शॆर-बब्बर ना कभी डरा,

अब कपटी कालॆ अंग्रॆजॊं का, खंडित उन्माद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥२॥

इस सॊनॆ की चिड़िया कॊ,खुलॆ-आम जॊ लूट रहॆ थॆ,
उसकॆ कॆहरि-गर्जन सॆ बस,सबकॆ छक्कॆ छूट रहॆ थॆ,
उस मतवालॆ की सांसॊं मॆं, आज़ादी थी,आज़ादी थी,
हर बूँद रुधिर की उस की, आज़ादी की, उन्मादी थी,

भारत की सीमाऒं पर कॊई,निर्णायक संवाद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥३॥

अधिकारॊं की खातिर मरना,सिखा गया वह बलिदानी,
स्वाभिमान की रक्षा मॆं, सबकॊ दॆनी पड़ती है कुर्वानी,
मुक्त-हृदय सॆ उसकी गौरव,गाथा का अभिनंदन करलॆं,
भारत माँ कॆ उस बॆटॆ कॊ,आऒ सत-सत वंदन करलॆं,

यह राष्ट्र-तिरंगा भारत का, तब तक आबाद नहीं हॊगा ॥
जब तक इस भूमि पर पैदा, फिर सॆ आज़ाद नहीं हॊगा ॥४॥

कवि-राज बुन्दॆली
२९/०५/२०१२

Thursday, April 12, 2012

शीर्षक--भीड़ू कब सॆ,,,,,,,,

शीर्षक--भीड़ू कब सॆ,,,,,,,,
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इन्तज़ार मॆं उसकॆ खड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥
बता तॆरा यॆ टांका भिड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥१॥

वॊ घास भी तॊ नहीं डालती है तुझकॊ,

तू नहा धॊ कॆ पीछॆ पड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥२॥

पढ़ाई लिखाई की वाट लगा डाली तूनॆ,

सर पर तॆरॆ बुखार चढ़ा है भीड़ू कब सॆ ॥३॥

समझदारी की बात कॊ समझता नहीं,

बतादॆ तॆरा दिमाग सड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥४॥

तॆरॆ मुकद्दर मॆं हॊयॆगी जॊ मिलॆगी वही,

क्यूं ज़िद मॆं उसकी अड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥५॥

मैं तॊ कहता हूं सारॆ लफ़ड़ॆ अब छॊड़ दॆ,

इश्क कॆ दलदल मॆं गड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥६॥

अपनॆ हांथॊं कैरेक्टर गिरा रहा क्यॊं बॆ,

यह कैरॆक्टर बहुत बड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥७॥

चल यार अपुन दॊनॊ मुशायरा सुनॆंगॆ,

आज"राज"मंच पॆ खड़ा है भीड़ू कब सॆ ॥८॥

कवि-राज बुन्दॆली

१२/०४/२०१२

Monday, March 26, 2012

बबाल किसी और का,,,,

बबाल किसी और का,,,,
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यूं भी आता है सर पॆ बबाल किसी और का ॥
दिल अपना हॊता है ख्याल किसी और का ॥

अचानक पर्स उनका खॊला, तॊ पाया हमनॆ,

है ख़त किसी और का,रुमाल किसी और का ॥

एक कंजूस नॆ हॊली, मनाई कुछ इस तरह,

मासूका थी और की, गुलाल किसी और का ॥

खुद कॊ कुबॆर समझता है न जानॆ क्यूं कर,

खज़ाना है और का,टकसाल किसी और का ॥

मंचॊ पॆ मिलता है दॆखनॆ कॊ "राज"अक्सर,

गज़ल किसी और का,कमाल किसी और का ॥

कवि-राज बुन्देली

२६/०३/२०१२

Tuesday, March 13, 2012

दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं,,,


  दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं,,,

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मॆरी तस्वीर लगाकॆ जॊ सीनॆ सॆ रखतॆ हैं

दॆखना है दिल कितनॆ करीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥१॥


मॊहब्बत मॆं जां लुटानॆ की बात करतॆ हैं,

मॆरॆ लहू का माप, जॊ पसीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥२॥


 यॆ और बात है, मैं ज़िंदा हूं, अब तलक,

 नज़र वॊ मुझ पॆ कई महीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥३॥


आज कल फ़रिश्तॆ कहॆ जातॆ हैं वॊ लॊग

खुद कॊ दूर जॊ डूबतॆ सफ़ीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥४॥


ज़िंदा-दिली उनकॊ , रास आयॆगी कभी,
कम-ज़र्फ़ तॊ रिश्तॆ कमीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥५॥


आतॆ हैं खातॆ-पीतॆ हैं चलॆ जातॆ हैं लॊग,
ज़मानॆ सॆ नहीं मतलब जीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥६॥


मंदिर मॆं पियॆं या फ़िर मस्ज़िद मॆं पियॆं,
उसकॆ आशिक़ मतलब पीनॆं सॆ रखतॆ हैं ॥७॥


उनकी हिफ़ाज़त ख़ुदा करता है "राज",
ख्यालॊ-किरदार जॊ नगीनॆ सॆ रखतॆ हैं ॥८॥

 

कवि-राज बुन्दॆली
  १३/०३/२०१२

Saturday, March 10, 2012

साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ,,,,,,,

साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ,,,,,,,
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आँचल हया का सर सॆ सरकनॆ नहीं दिया ॥
चॆहरॆ पॆ दिल का ग़म भी झलकनॆ नहीं दिया ॥

तॆबर अना कॆ, उनकॆ, कभी ख़म नहीं हुयॆ,
मिरॆ मिज़ाज़ नॆ मुझकॊ भी झुकनॆ नहीं दिया ॥

कुछ तर्कॆ-तआल्लुकात की दुश्वारियां तॊ थीं,
कुछ गर्दिशॊं नॆं भी मुझकॊ सम्हलनॆ नहीं दिया ॥

आज समंदर सा हॊता यकीनन रुतबा मॆरा,
दायरॊं नॆ कभी भी मुझकॊ पसरनॆ नहीं दिया ॥

मॆरॆ सफ़ीनॆ का मॆरा अपना नाखुदा था वॊ,
साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ उतरनॆ नहीं दिया ॥

कॊशिशॆं तॊ बॆहिसाब की अपनॊं नॆ मगर,
गैरॊं की दुआवॊं नॆं मुझकॊ मरनॆ नहीं दिया ॥

बॆखबर है वॊ ज़िन्दा हूं मैं जिसकॆ वास्तॆ,
उसकी खामॊशी नॆ इज़हार करनॆ नहीं दिया ॥

उसकॆ दामन पॆ तहरीर लिखता तॊ कैसॆ,
अश्कॊं की मानिंद मुझकॊ गिरनॆ नहीं दिया ॥

छॊड़ दॆता दर,गली,शहर,महफ़िल मगर,
उसकॆ एक वादॆ नॆ मुझकॊ मुकरनॆ नहीं दिया ॥

रॆत पर खड़ा था मॆरी मॊहब्बत का मकां,
बुनियाद पॆ पत्थर तॊ उसनॆ धरनॆ नहीं दिया ॥

बड़ा कठिन है ज़मानॆ सॆ लड़ना "राज",
बुलंद हौसलॊं नॆ मुझकॊ बिखरनॆ नहीं दिया ॥

कवि-राज बुन्दॆली
११/०३/२०१२

Friday, March 9, 2012

अधूरॆ हैं हम,,,,,,
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कहनॆ कॊ यूं तॊ, भरॆ पूरॆ हैं हम ।

मगर हकीकत मॆं, अधूरॆ हैं हम ॥


जब जैसा चाहॆ नचाता है हमकॊ,

वक्त की डुगडुगी कॆ ज़मूरॆ हैं हम ॥


सिर्फ़ कॊई छॆड़ दॆ, भला, या बुरा,

झनझना उठतॆ ऎसॆ तमूरॆ हैं हम ॥


बांटतॆ फ़िर रहॆ,नफ़रत का ज़हर,

इंसान कॆ रूप मॆं भी धतूरॆ हैं हम ॥


किस मुंह सॆ कब, किसॆ काट लॆं,

दॊ मुंह वालॆ वॊ कनखजूरॆ हैं हम ॥


गांधी कॆ बंदरॊं सॆ सीखा है "राज",

गूंगॆ हैं, बहरॆ हैं, और सूरॆ हैं हम ॥


कवि-राज बुन्दॆली
अधूरॆ हैं हम,,,,,,
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कहनॆ कॊ यूं तॊ, भरॆ पूरॆ हैं हम ।

मगर हकीकत मॆं, अधूरॆ हैं हम ॥


जब जैसा चाहॆ नचाता है हमकॊ,

वक्त की डुगडुगी कॆ ज़मूरॆ हैं हम ॥


सिर्फ़ कॊई छॆड़ दॆ, भला, या बुरा,

झनझना उठतॆ ऎसॆ तमूरॆ हैं हम ॥


बांटतॆ फ़िर रहॆ,नफ़रत का ज़हर,

इंसान कॆ रूप मॆं भी धतूरॆ हैं हम ॥


किस मुंह सॆ कब, किसॆ काट लॆं,

दॊ मुंह वालॆ वॊ कनखजूरॆ हैं हम ॥


गांधी कॆ बंदरॊं सॆ सीखा है "राज",

गूंगॆ हैं, बहरॆ हैं, और सूरॆ हैं हम ॥


कवि-राज बुन्दॆली
लहू निचोड़ कर लिखता हूं,,,,,,
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मैं सीधा सादा तोड़-मरोड़ कर लिखता हूं !
मीरो-गालिब तकी को जोड़ कर लिखता हूं !!

तिश्नालबी का पता तब चलता है मुझ को,
जब कभी मैं पैमाना तोड़ कर लिखता हूं !!


मेरे असआर से क्यूं जलते हैं चंद लोग,
उनके वास्ते काफ़िया छोड़कर लिखता हूं !!


सियासी घोड़ों को जरा कम सुनाई देता है,
लफ़्ज़ों मे इसलिये बम फोड़कर लिखता हूं !!


अम्नो-अमां की बातें लिखता हूं जब कभी,
हरेक मज़हबी को हांथ जोड़कर लिखता हूं !!


हैवानियत का चेहरा दिखाता हूं मैं मगर,
खूं-खंज़र कातिल नाक सिकोड़कर लिखता हूं !!


मेरी गज़ल आम आदमी की गज़ल होती है,
मैं अपने वज़ूद को झिझोड़ कर लिखता हूं !!


मेरे लफ़्जों मे कसक यूं आती है "राज़",
अपने ज़िगर का लहू निचोड़ कर लिखता हूं !!

"राज़बुंदेली"

Monday, February 13, 2012

कब तक चलेगा,,,,,,,

कब तक चलेगा,,,,,,,
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उधार, उधार पे उधार, कब तक चलेगा ।
किसान हुआ कर्जदार, कब तक चलेगा ॥१॥


बच्चे पढ़ लिखकर बेरोजगार फ़िर रहे,
आरक्षण का हथियार, कब तक चलेगा ॥२॥


खानॆ को चार पेट कमाने को दो हांथ,
यूँ हमारा घर-परिवार, कब तक चलेगा ॥३॥


दबंग हैं जब तक ज़िंदगी से लड रहे हैं,
ये खेल आखिरकार, कब तक चलेगा ॥४॥


वह गालियों से शुरुआत करता है बात,
आरक्षण  का थानेदार,कब तक चलेगा ॥५॥

आज नहीं तो कल मिलता है

आज नहीं तो कल मिलता है
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यहां आज नहीं तो कल मिलता है !
सबको करनी का फ़ल मिलता है !!


यह दुनिया बड़ी फ़रेबी है भाई,
कदम कदम पर छल मिलता है !!


मासूका को कौन घुमाये गाड़ी में,
इतना मँहगा डीज़ल मिलता है !!


बस्ती में बाढ़ , फ़सल में इल्ली,
भूखा चूल्हा सूखा नल मिलता है !!


इस बार चुनाव लड़ेगा ये शायद,
लोगों से वह तो पैदल मिलता है !!


जनता की किस्मत फ़ूटी समझो,
जब भी कोई सिब्बल मिलता है !!


  कवि-राज बुन्दॆली

इशारॊं-इशारॊं सॆ,,,, ----------------------

इशारॊं-इशारॊं सॆ,,,,
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इशारॊं-इशारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥
आज सितारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥१॥

गुलॊं सॆ मॊहब्बत, है हर एक कॊ,
क्यूं न ख़ारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥२॥


यह हवॆली महफ़ूज़, है या कि नहीं,
इन पहरॆदारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥३॥


रॊटी की कीमत, समझ मॆं आ जायॆ,
जॊ बॆरॊजगारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥४॥


उस की आबरू, नीलाम हॊगी कैसॆ,
चलॊ पत्रकारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥५॥

किसकी सिसकियां, हैं उन खॆतॊं मॆं,
"राज"जमींदारॊं सॆ, बात कर ली जायॆ ॥६॥


कवि-"राज बुन्दॆली"

आपकॆ लियॆ,,, ----------------

आपकॆ लियॆ,,,
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जॊ भी तकलीफ़ॆं उठाईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥
पावॊं मॆं फ़ट गईं बिंबाईं,उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥१॥

हमारॆ चाल-चलन की, मिसाल दॆतॆ हैं लॊग,
हम नॆं मुर्गियां चुराईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥२॥

पतंगबाजी हमारॆ,बाप दादा भी जानते न थे,
हमनॆं तॊ पतंगॆं उड़ाईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥३॥

घुड़सवारी न करतॆ, लंगड़ॆ न हॊतॆ ज़नाब,
नई घॊड़ियां मगवाईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥४॥

इश्क की ए.बी.सी.डी, भला क्या जानॆं हम,
वह बन संवर कॆ आईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥५॥

अक्सर फ़ॆर लॆतीं हैं नज़रॆं, दॆख करकॆ हमॆं,
आज आतॆ ही मुस्कुराईं,उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥६॥

नागफ़नी कह कॆ, बुलाता है मॊहल्ला जिन्हॆं,
हाय!क्या गज़ब शरमाईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥७॥

कह दिया किसी नॆ कि, उस्ताद चल बसॆ,
आंखॊं सॆ नदियां बहाईं,उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥८॥

बड़ॆ पाप्युलर हॊ आप तॊ, मॊहल्लॆ मॆं अपनॆं,
रॊईं घर-घर मॆं लुगाईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥९॥

बड़ॆ शायरॊं मॆं तॊ हमारा, भी नाम है "राज",
दॊ-चार गज़लॆं जॊ उड़ाईं, उस्ताद आपकॆ लियॆ ॥१०॥

    कवि-राज बुन्दॆली,,,,
     ०४/०२/२०१२











Thursday, January 19, 2012

अधूरॆ हैं हम,,,,,,

अधूरॆ हैं हम,,,,,,
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कहनॆ कॊ यूं तॊ, भरॆ पूरॆ हैं हम
मगर हकीकत मॆं, अधूरॆ हैं हम
...
जब जैसा चाहॆ नचाता है हमकॊ,
वक्त की डुगडुगी कॆ ज़मूरॆ हैं हम

सिर्फ़ कॊई छॆड़ दॆ, भला, या बुरा,
झनझना उठतॆ ऎसॆ तमूरॆ हैं हम

बांटतॆ फ़िर रहॆ,नफ़रत का ज़हर,
इंसान कॆ रूप मॆं भी धतूरॆ हैं हम

किस मुंह सॆ कब, किसॆ काट लॆं,
दॊ मुंह वालॆ वॊ कनखजूरॆ हैं हम

गांधी कॆ बंदरॊं सॆ सीखा है "राज",
गूंगॆ हैं, बहरॆ हैं, और सूरॆ हैं हम

कवि-राज बुन्दॆली
१९/०१/२०१२

Sunday, January 8, 2012

सर उठा के जिया हूं,सर उठाके मरूंगा,
अपनी हस्ती ,वतन पे लुटा के मरूंगा,
आयेगी जब कज़ा,उस से कह दूंगा मैं,
अपनी मिट्टी का, कर्ज चुका के मरूंगा !!

हम सॆ लगाया नहीं जाता.........

हम सॆ लगाया नहीं जाता.........
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झड़तॆ बालॊं मॆं खिज़ाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ।
उड़ती सांसॊं का हिसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥१॥

अपना किरदार हमॆशा , खुली किताब रहा है प्यारॆ ,
चॆहरॆ पर कॊई नकाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥२॥

कल शाम उनकॊ दॆखा , हमनॆं जॊ गैर की बांहॊं मॆ,
उनकॆ बालॊं मॆं गुलाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥३॥

भगतसिंह जैसॆ दस कॊ , हम लगा दॆतॆ फ़ांसी पर,
अकॆला कमीना कसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥४॥

गणित प्रॊफ़ॆसर हैं हम , जानतॆ हैं सारॆ गुणनफ़ल,
उसकॆ खर्चॆ का हिसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥५॥

निगलतॆ जा रहॆ हैं नॆता , मिल कर देश कॊ "राज",
इनकी गर्दन पर दाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥६॥

कवि-"राजबुन्दॆली"
२/१/२०१२

कवित्त,,,,

फ़ागुन के महीने में नशा ऎसा हुआ,
जड़ पॆड़ आम के भी बौराने लगे हैं ॥

बही मादकता महुआ की डाल-डाल ,
पलाश तरु वसंत-गीत गाने लगे हैं ॥

सरिता के तीर निरखत मयंक-मुख,
चकवा-चकवी दोऊ इतराने लगे हैं ॥

कहॆ कवि "राज" रितुराज आया जब,
बूढ़ों के दिमाग भी फ़ड़फ़ड़ाने लगे हैं ॥

खुद को जलाना पड़ता है,,,,,

खुद कॊ जलाना पड़ता है,,,,,
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कुछ खास मकसद सॆ यहां आना पड़ता है ।।
हरॆक कॊ अपना किरदार निभाना पड़ता है ॥१॥

वाह ! क्या बेवकूफ़ी है यॆ इश्क का फ़न्डा,
मज़नूं कॊ दॊनॊं का खर्चा उठाना पड़ता है ॥२॥

जॆब मॆं कुछ हॊ या न हॊ उसकी बला सॆ,
कह दॆ तॊ फ़िर सिनॆमा दिखाना पड़ता है ॥३॥

निहायत ज़ाहिल है वो समझॆ या न समझॆ,
अग़र अपना फ़र्ज है तॊ समझाना पड़ता है ॥४॥

मुस्कुरानॆ मॆं तकलीफ़ हॊती है अमीरॊं कॊ,
साथ निभानॆ कॆ वास्तॆ मुस्कुराना पड़ता है ॥५॥

वॊ तरकीबॊं सॆ चला रहॆ हैं दॆश का शासन,
हमॆं तरकीबॊं सॆ यहां घर चलाना पड़ता है ॥६॥

जानतॆ हैं हम कि कल यॆ डसॆंगॆ हमीं कॊ,
सांपॊं कॊ फ़िर भी तॊ दूध पिलाना पड़ता है ॥७॥

बातॊं सॆ बातिल वॊ लगता तॊ नहीं मगर,
आजमायॆ हुयॆ कॊ भी आजमाना पड़ता है ॥।८॥

हरॆक पर भरॊसा किया नहीं करतॆ हैं हम,
दुश्मनॊं सॆ भी तॊ हांथ मिलाना पड़ता है ॥।९॥

कायर नहीं हैं हम मगर पंगा नहीं लॆतॆ,
उसकॆ दरवाजॆ सॆ ही आना जाना पड़ता है ॥१०॥

यूं ही नहीं मिलता है सरॆ-राह साया कॊई,
बूढ़ॆ बरगद कॊ कटनॆ सॆ बचाना पड़ता है ॥११॥

ज़मानॆ कॊ रॊशनी दॆना कठिन है "राज",
चिराग बन कॆ खुद कॊ जलाना पड़ता है ॥१२॥

कवि-राज बुँदॆली
०३/०१/२०१२

चिराग ही घर जलाने लगे हैं,,,

लक्ष्य पर सब के निशाने लगे हैं ॥
असलियत अपनी दिखाने लगे हैं ॥१॥

उन कलियों ने मुस्कुरा क्या दिया,
मनचले भंवरे तो मंडराने लगे हैं ॥२॥

यकीनन इस शहर में चुनाव होगा,
यहां नेता कई पैदल आने लगॆ हैं ॥३॥

बंटने वालॆ हैं फ़िर वायदों के पुलाव,
अपने अपने परचम फ़हराने लगे हैं ॥४॥

श्रेष्ठता की दौड़ मॆं सब अंधे हो गये,
जुगनू भी सूरज को धमकाने लगे हैं ॥५॥

तूफ़ां कॊ निगल जायेंगे सोच कर,
देखो तिनके भी सर उठाने लगे हैं ॥६॥

उनसे अदब की उम्मीद मत रखना,
जो कान्वेंन्ट स्कूलो में जाने लगे है ॥७॥

अब क्या ज़माना आ गया है "राज़",
घर के चिराग ही घर जलाने लगे हैं ॥८॥

कवि-राजबुन्देली