Saturday, February 26, 2011

बारहमासी,,,,,,,,,,,,
_________________________
अमुआ जामुन महुआ बौराने, बौराने साधू संत !
सखी री,आवन लग्यॊ बसंत, सखी री आवन,,,,,,

चैत मास मॊहि चैन न आवॆ,
बैसाखी मॊरॆ मन नहि भावॆ,
यॆ जॆठ दुपहरी जिया जरावॆ,
हैं परदॆश बसॆ मॊरॆ कंत,सखी री आवन लग्यॊ बसंत !!
सखी री आवन लग्यॊ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

जियरा मॊरॆ चढ़ी आसाढ़ी,
सावन मन बॆचैनी बाढ़ी,
निशदिन द्वारॆ ठाढ़ी ठाढ़ी,
शाकुन्तल दॆख रही दुश्यंत, सखी री आवन लग्यॊ बसंत !!
सखी री आवन लग्यॊ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

भादॊं रैन घटा अंधियारी,
क्वांर कलॆजॆ चलॆ कटारी,
अगहन यौवन की फुलवारी,
अब मन भय़ॊ निराला पंत, सखी री आवन लग्यॊ बसंत !!
सखी री आवन लग्यॊ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

पौष मास जाड़ॆ की रात,
माघ सजन की मीठी बात,
फागुन सूखॊ बीतॊ जात ,
है कहां बिरह कॊ अंत , सखी री आवन लग्यॊ बसंत !!
सखी री,आवन लग्यॊ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कवि-राजबुँदॆली

Sunday, February 6, 2011

परसु राम को आने दो ,,

परसुराम कॊ आनॆ दॊ,,,,
------------------------------------------------------------
कैकॆई नॆं वर मॆं माँगा था, वन कॆवल चौदह वर्षॊं का,
कुछ गद्दारॊं नॆं गला दबाया, मर्यादाऒं का आदर्शॊं का,
भारत-भूमि पर भरत-बंधु कॊ, आजीवन वनवास दिया,
दिया कंस कॊ सत्ता सिंहासन,कान्हा कॊ कारावास दिया,
अब अग्नि-परीक्षा दॆती हैं, दॆखॊ घर-घर मॆं सीतायॆं,
सिसक रही हैं मंदिर-मंदिर, वॆद व्यास की गीतायॆं,
अब युवा-शक्ति कॆ गर्जन सॆ, संसद की दीवारॆं थर्रानॆ दॊ !!१!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ, यहाँ परसुराम कॊ आनॆ दॊ !!

बाल्यकाल सॆ ही कानॊं मॆ,भारत माँ की लॊरी भर दॊ,
हाँथॊं मॆं दॆ तलवार भाल पर, मिट्टी की रॊरी धर दॊ,
फ़ौलाद बना दॊ उनकॊ, भर कर बारूद विचारॊं का,
हरॆक अधर पर मंत्र जगा दॊ, इंक्लाब कॆ नारॊं का,
भ्रष्टाचारी गद्दारॊं का अब, अंतिम अध्याय यही है,
अपना दॆश बचाना है तॊ, अंतिम पर्याय यही है ,
भारत माँ कॆ हर बॆटॆ कॊ अब, लौह-पुरुष बन जानॆ दॊ !!२!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ.......................................

जाति धर्म भाषा कॆ झगड़ॆ, या फिर खद्दरधारी रंजिश,
अपनी ही धरती पर हमकॊ, झंडा फ़हरानॆ मॆं बंदिश,
नाहर कॆ घर मॆं जन्मॆ फ़िर, कायरता कौन सिखा गया है,
राष्ट्र तिरंगा न फ़हराना, किस अनुच्छॆद मॆं लिखा गया है,
बलिदानी अमर शहीदॊं कॊ, अब न और रुलाऒ तुम,
साथ चलॊ तॊ स्वागत है, वरना भाड़ मॆं जाऒ तुम,
पर भारत कॆ गाँव-गाँव मॆं, तुम हमॆं तिरंगा फ़हरानॆ दॊ !!३!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ........................................

उनका जॊश जरा दॆखॊ जॊ, आज़ादी कॆ दीवानॆ थॆ,
रंग दॆ बसंती चॊला गातॆ, भारत माँ कॆ मस्तानॆ थॆ,
इंक्लाब कॆ गर्जन सॆ, नभ मंडल भी थर्राया था,
फ़ांसी पर चढ़तॆ-चढ़तॆ, जब वंदॆ-मातरम गाया था,
दॆश द्रॊहियॊं का छल-छद्रम, बिल्कुल समझ न आता है,
फ़हराता है अगर तिरंगा कॊई, इनकॆ बाप का क्या जाता है,
"राज"कवि की लौह लॆखनी कॊ, शब्दॊं कॆ कुठार चलानॆ दॊ !!४!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ....................................................

कवि-राजबुँदॆली.....

परसु राम को आने दो ,,

परसुराम कॊ आनॆ दॊ,,,,
------------------------------------------------------------
कैकॆई नॆं वर मॆं माँगा था, वन कॆवल चौदह वर्षॊं का,
कुछ गद्दारॊं नॆं गला दबाया, मर्यादाऒं का आदर्शॊं का,
भारत-भूमि पर भरत-बंधु कॊ, आजीवन वनवास दिया,
दिया कंस कॊ सत्ता सिंहासन,कान्हा कॊ कारावास दिया,
अब अग्नि-परीक्षा दॆती हैं, दॆखॊ घर-घर मॆं सीतायॆं,
सिसक रही हैं मंदिर-मंदिर, वॆद व्यास की गीतायॆं,
अब युवा-शक्ति कॆ गर्जन सॆ, संसद की दीवारॆं थर्रानॆ दॊ !!१!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ, यहाँ परसुराम कॊ आनॆ दॊ !!

बाल्यकाल सॆ ही कानॊं मॆ,भारत माँ की लॊरी भर दॊ,
हाँथॊं मॆं दॆ तलवार भाल पर, मिट्टी की रॊरी धर दॊ,
फ़ौलाद बना दॊ उनकॊ, भर कर बारूद विचारॊं का,
हरॆक अधर पर मंत्र जगा दॊ, इंक्लाब कॆ नारॊं का,
भ्रष्टाचारी गद्दारॊं का अब, अंतिम अध्याय यही है,
अपना दॆश बचाना है तॊ, अंतिम पर्याय यही है ,
भारत माँ कॆ हर बॆटॆ कॊ अब, लौह-पुरुष बन जानॆ दॊ !!२!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ.......................................

जाति धर्म भाषा कॆ झगड़ॆ, या फिर खद्दरधारी रंजिश,
अपनी ही धरती पर हमकॊ, झंडा फ़हरानॆ मॆं बंदिश,
नाहर कॆ घर मॆं जन्मॆ फ़िर, कायरता कौन सिखा गया है,
राष्ट्र तिरंगा न फ़हराना, किस अनुच्छॆद मॆं लिखा गया है,
बलिदानी अमर शहीदॊं कॊ, अब न और रुलाऒ तुम,
साथ चलॊ तॊ स्वागत है, वरना भाड़ मॆं जाऒ तुम,
पर भारत कॆ गाँव-गाँव मॆं, तुम हमॆं तिरंगा फ़हरानॆ दॊ !!३!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ........................................

उनका जॊश जरा दॆखॊ जॊ, आज़ादी कॆ दीवानॆ थॆ,
रंग दॆ बसंती चॊला गातॆ, भारत माँ कॆ मस्तानॆ थॆ,
इंक्लाब कॆ गर्जन सॆ, नभ मंडल भी थर्राया था,
फ़ांसी पर चढ़तॆ-चढ़तॆ, जब वंदॆ-मातरम गाया था,
दॆश द्रॊहियॊं का छल-छद्रम, बिल्कुल समझ न आता है,
फ़हराता है अगर तिरंगा कॊई, इनकॆ बाप का क्या जाता है,
"राज"कवि की लौह लॆखनी कॊ, शब्दॊं कॆ कुठार चलानॆ दॊ !!४!!
राम राज्य आनॆ सॆ पहलॆ....................................................

कवि-राजबुँदॆली.....


Saturday, February 5, 2011

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह एकमात्र फोटो है, जिसे कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन द्वारा 1850 में ही खींचा गया था। यह फोटो अहमदाबाद निवासी चित्रकार अमित अंबालाल के संग्रह में मौजूद है।

Thursday, February 3, 2011

शिव तांडव स्तोत्रं: (श्र...
जटाटवीगलज्जल.प्रवाहपावितस्थले गलेsवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम
डमडमडमडमन्नी.नादवडमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम् || १ || जटाकटाहसम्भ्रम.भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरी.विराजमानमूर्धनि | धगधगधगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रति: प्रतिक्षणं मम || २ || धराधरेन्द्रनन्दनी.विलासबन्धुबन्धुर- स्फुरदिगन्तसन्तति.प्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरिणी.निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिदिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि || ३ || जटाभुजंगपिंगल.स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदम्बकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फूरत्त्व.गुत्तरियमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि || ४ || सहस्त्रलोचनप्रभृत्य.शेषलेखशेखर- प्रसून धूलिधोरिणी विधूसरांगघ्रिपीठभू: |
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटक: श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखर: || ५ ||ललाटचत्वरज्वल.धनञ्जयस्फुलिंगभा- निपीतपञ्चसायकं नमन्नीलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु न: || ६ ||करालभालपट्टिका.धगधगधगज्ज्वल- धनञ्जयाहुती.कृतप्रचंडपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दनी.कुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचने रतिर्मम || ७ ||नवीनमेघमण्डली.निरुद्धदुर्धरस्फुर-त्कुहूनिशिथिनीतम:प्रबन्धबद्धकन्धर: |
निलिम्पनिर्झरी.धरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुर: कलानिधानबन्धुर: श्रियं जगदधुरन्धर: || ८ ||प्रफुल्लनीलपंकज.प्रपंचकालिमप्रभा- वलम्बीकंठ कन्दली रूचिप्रबद्धकन्धरम |
स्मरच्छीदं पुरच्छीदं भवच्छीदं मखच्छीदं गजच्छीदान्धकच्छीदं तमन्तकच्छीदं भजे || ९ ||अखर्वसर्वमंगला.कलाकदम्बमन्जरी- रस प्रवाह माधुरी विज्रुम्भणामधुव्रतम |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १० ||जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रम.भुजंगमश्वस- द्विनिर्गमत्क्रम.स्फुरत्करालभालहव्यवाट |धिमिधिमिधिमिदध्वनि.मृदंगतुंगमंगल- ध्वनिक्रमप्रवर्तित.प्रचण्डताण्डव: शिव: || ११ ||दृषद्विचित्रतल्पयो.भुजंगमौक्तिकस्त्रजो- र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयो: सुह्यद्विपक्षपक्षयो: |
तृणारविन्दचक्षुषो: प्रजामहीमहेन्द्रयो: समप्रवृत्तिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम || १२ ||
कदा निलिम्पनिर्झरी.निकुन्जकोटरे वसन विमुक्तदुर्मति: सदा शिर:स्थमजलिं वहन |
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नक: शिवेतिमन्त्रमुच्चरन कदा सुखी भवाम्यहम || १३ ||
इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्त.मोत्तमं स्तवं पठन स्मरन ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम || १४ ||
दशवक्त्रगीतं य: शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाती शम्भु: || १५ || ||
इति श्रीरावणकृतं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम ||
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मज वा श्रवननयनजं वा मानसं वाsपराधाम|
विहितमविहितं वा सर्वमेतत क्षमस्व जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ||

Wednesday, February 2, 2011

ग़ज़ल: एक परिचय : संजीव 'सलिल'

ग़ज़ल - उर्दू का एक सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य-रूप जो मूलतः अरबी से आया है. अरबी में ग़ज़ल की उत्पत्ति लघु प्रेमगीत 'तशीब' या 'कसीदे' से तथा फारसी में गज़ाला-चश्म (मृगनयनी) अर्थात महबूब / महबूबा से वार्तालाप से मानी गई. इसलिए 'नाज़ुक खयाली' (हृदय की कोमल भावनाएँ) ग़ज़ल का वैशिष्ट्य मानी गयीं. सूफियों ने महबूब ईश्वर को मानकर आध्यात्मिक दार्शनिक ग़ज़लें कहीं. कालांतर में क्रांति और सामाजिक वैषम्य भी ग़ज़लों का विषय बन गये. ग़ालिब ने इसे 'तंग गाली' और 'कोल्हू का बैल' कहा कर नापसंदगी ज़ाहिर की लेकिन उनकी ग़ज़लों ने ही उन्हें अमर कर दिया. उनकी श्रेष्ठ(?) रचनाएँ क्लिष्टता के कारण दीवानों (संकलनों) में ही रह गयीं.
मिसरा = कविता की एक पंक्ति, एक काव्य-पद.
मिसरा ऊला / मिसरा अव्वल = शे'र की पहली पंक्ति.
मिसरा सानी = शेर की दूसरी पंक्ति.
शे'र = शाब्दिक अर्थ जानना, जानी हुई बात, उर्दू कविता की प्राथमिक इकाई, दो मिसरों का युग्म, द्विपदी. बहुवचन अश'आर (उर्दू), शेरों (हिंदी). शे'र की दोनों पंक्तियों का हमवज्न / समान पदभार का होना ज़रूरी है. सुविधा के लिये कह सकते हैं कि दोनों की मात्राएँ (मात्रिक छंद में) अथवा अक्षर (वर्णिक छंद में) समान हों. सार यह कि कि दोनों पंक्तियों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान हो. शे'र को फर्द या बैत भी कहते हैं.
शायर = जाननेवाला, कवि.
बहर = छंद. आहंग (अवरोह) के लिहाज़ से शब्दों की आवाज़ों के आधार पर तय किये गये पैमाने 'बहर' कहे जाते हैं.
बैत = एकमात्र शे;र.
बैतबाजी = किसी विषय विशेष पर केन्द्रित शे'रों की अन्त्याक्षरी.
रदीफ़ / तुकांत = शेरों के दूसरे मिसरे में अंत में प्रयुक्त अपरिवर्तित शब्द या शब्द समूह, बहुवचन रदाइफ़ / पदांतों. ग़ज़ल में रदीफ़ होना वांछित तो है जरूरी नहीं अर्थात ग़ज़ल बेरदीफ भी हो सकती है. देखे उदाहरण २.
काफिया / पदांत = शे'रों के दूसरे मिसरे में रदीफ़ से पहले प्रयुक्त एक जैसी आवाज़ के अंतिम शब्द / अक्षर / मात्रा. बहुवचन कवाफी / काफिये. ग़ज़ल में काफिये का होना अनिवार्य है, बिना काफिये की ग़ज़ल हो ही नहीं सकती.
वज्न = वजन / पदभार. अरबी-फ़ारसी उअर उस आधार पर उर्दू काव्य में लय विशेष की प्रमुखता के साथ निश्चित मात्राओं के वर्ण समूह को वज्न कहते हैं. काव्य पंक्ति के अक्षरों को रुक्न (गण) की मात्राओं से मिलाकर बराबर करने को वज्न ठीक करना कहा जाता है. ग़ज़ल के सभी अश'आर हमवज्नी (एक छंद में) होना अनिवार्य है.
रुक्न (गण) = पूर्व निश्चित मात्रा-समूह. जैसे- फ़अल, फ़ाइल, फ़ईलुन, फ़ऊल आदि, हिंदी के जगण, मगन, तगण की तरह. बहुवचन अर्कान/अरकान.
उर्दू के छंद प्रायः मात्रिक हैं, उनमें एक गुरु (दीर्घ) के स्थान पर दो लघु आना जायज़ है. संस्कृत की तरह उर्दू में भी गुरु को लघु पढ़ा जा सकता है किन्तु इसे सामान्यतः नहीं अपवाद स्वरूप ज़रूरी तथा उपयुक्त होने पर ही काम में लाना चाहिए ताकि अर्थ का अनर्थ न हो. देखिये उदाहरण ३.
उदाहरण:
१.
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ़ हम.
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई..
आखिरे-शब् के हमसफर 'फैज़' न जाने क्या हुए.
रह गई किस जगह सबा, सुब्ह किधर निकल गई..
यहाँ 'गई' रदीफ़ है जबकि उसके थी पहले 'बदल' और 'निकल' कवाफी हैं.
गजल का पहला शे'र शायर अपनी मर्जी से रदीफ़-काफिया लेकर कहता है, बाद के शे'रों में यही बंधन हो जाता है. रदीफ़ को जैसा का तैसा उपयोग करना होता है जबकि काफिया के अंत को छोड़कर कुछ नियमों का पालन करते हुए प्रारंभ बदल सकता है. जैसे उक्त शेरों में 'बद' और 'निक'. जब काफिया न मिल सके तो इसे 'काफिया तंग होना' कहते हैं. काफिये-रदीफ़ के इस बंधन को 'ज़मीन' कहा जाता है. कभी-कभी कोई विचार केवल इसलिए छोड़ना होता है कि उसे समान ज़मीन में कहना सम्भव नहीं होता. अच्छा शायर उस विचार को किसी अन्य काफिये-रदीफ़ के साथ अन्य शे'र में कहता है. जो शायर वज्न या काफिये-रदीफ़ का ध्यान रखे बिना ठूससमठास करते हैं कमजोर शायर कहे जाते हैं.
२. बेरदीफ ग़ज़ल- हसन नीम की ग़ज़ल के इन शे'रों में सिर्फ काफिये (बड़े, लदे, पड़े) हैं, रदीफ़ नहीं है.
यकसां थे सब निगाह में, छोटे हों या बड़े.
दिल ने कहा तो एक ज़माने हम लड़े..
ज़िन्दां की एक रात में इतना जलाल था
कितने ही आफताब बलंदी से गिर पड़े..
३.
गुलिस्तां में जाकर हरेक गुल को देखा.
न तेरी सी रंगत, न तेरी सी बू है..
बहर के अनुसार
गुलिस्तां में जाकर हर इक गुल को देखा.
न तेरी सि रंगत, न तेरी सि बू है..
मतला = ग़ज़ल का पहला शेर, मुखड़ा, आरम्भिका. इसके दोनों मिसरों में रदीफ़-काफिया या काफिया होता है. कभी-कभी एक से अधिक मतले हो सकते हैं जिन्हें क्रमशः मतला सानी, मतला सोम, मतला चहारम आदि कहते हैं. उस्ताद ज़ौक की एक ग़ज़ल में मय रदीफ़ १० मतले हैं.
मकता / मक्ता = ग़ज़ल का अंतिम शे'र जिसमें 'शायर का 'तखल्लुस' (उपनाम) होना जरूरी है, अंतिका. देखिये उदाहरण १.
४. पहले कभी-कभी शायर मतले और मकते दोनों में तखल्लुस का प्रयोग करते थे.
जो इस शोर से 'मेरे' रोता रहेगा
तो हमसाया कहे को सोता रहेगा. -मतला
बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आँसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा. - मकता
ग़ज़ल में आम तौर पर विषम संख्या में ५ से ११ तक शेर होते हैं लेकिन फिराक गोरखपुरी ने १०० शे'रों तक की ग़ज़ल कही है और अब तो २०००, ३००० शेरों की गज़लें (?) भी कही जा रहीं हैं. आरम्भ में ग़ज़लों में एक मिसरा अरबी तथा दूसरा फारसी का होता था. ऐसी कुछ गज़लें अमीर खुसरो की भी हैं.
रेख्ती = ग़ज़ल का एक रूप जिसमें ख्यालात व ज़ज्बात औरतों की तरफ से, उन्हीं की रंगीन बेगामाती जुबान में हो.
दीवान = ग़ज़ल संग्रह.
ज़मीन = ग़ज़ल का बाह्य कलेवर अर्थात छंद, काफिया, रदीफ़.
तरह = मिसरे-तरह = वह मिसरा जिसके छंद, काफिये और रदीफ़ की ज़मीन पर मुशायरे के सभी शायर ग़ज़ल कहते हैं.
गिरिह / गिरह = किसरे-तरह को मिसरा-ए-सानी बनाकर अपनी ओर से पहला मिसरा लगाना. यह शायर की कुशलता मानी जाती है.
तखल्लुस = उपनाम. कभी असली नाम का एक भाग, कभी बिलकुल अलग, प्रायः एक कभी-कभी एक से अधिक भी.
तारीख़ = किसी घटना पर लिखा गया ऐसा मिसरा जिसके अक्षरों के प्रतीक अंकों को जोड़ने पर उस घटना की तिथि या साल निकल आये. इसके लिये शायर का कुशल होना बहुत जरूरी है.
५. चकबस्त की मृत्यु पर उनके एक शायर मित्र ने शे'र कहा-
उनके मिसरे ही से तारीख़ है हमराहे-'अज़ा'
'मौत क्या है इन्हीं अजज़ा का परीशां होना.
अज़ा = ७८, दूसरा मिसरा = १२६६ योग = १३४४ हिज़री कैलेण्डर में चकबस्त का मृत्यु-वर्ष.
हज़ल = ग़ज़ल के वज़न पर मगर ठीक उल्टा. ग़ज़ल में भाव की प्रधानता और शालीनता प्रमुख हज़ल में भाव की न्यूनता और अश्लीलता की हद तक अशालीनता.
Acharya Sanjiv Salil