Friday, March 9, 2012

लहू निचोड़ कर लिखता हूं,,,,,,
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मैं सीधा सादा तोड़-मरोड़ कर लिखता हूं !
मीरो-गालिब तकी को जोड़ कर लिखता हूं !!

तिश्नालबी का पता तब चलता है मुझ को,
जब कभी मैं पैमाना तोड़ कर लिखता हूं !!


मेरे असआर से क्यूं जलते हैं चंद लोग,
उनके वास्ते काफ़िया छोड़कर लिखता हूं !!


सियासी घोड़ों को जरा कम सुनाई देता है,
लफ़्ज़ों मे इसलिये बम फोड़कर लिखता हूं !!


अम्नो-अमां की बातें लिखता हूं जब कभी,
हरेक मज़हबी को हांथ जोड़कर लिखता हूं !!


हैवानियत का चेहरा दिखाता हूं मैं मगर,
खूं-खंज़र कातिल नाक सिकोड़कर लिखता हूं !!


मेरी गज़ल आम आदमी की गज़ल होती है,
मैं अपने वज़ूद को झिझोड़ कर लिखता हूं !!


मेरे लफ़्जों मे कसक यूं आती है "राज़",
अपने ज़िगर का लहू निचोड़ कर लिखता हूं !!

"राज़बुंदेली"

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