Saturday, March 10, 2012

साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ,,,,,,,

साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ,,,,,,,
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आँचल हया का सर सॆ सरकनॆ नहीं दिया ॥
चॆहरॆ पॆ दिल का ग़म भी झलकनॆ नहीं दिया ॥

तॆबर अना कॆ, उनकॆ, कभी ख़म नहीं हुयॆ,
मिरॆ मिज़ाज़ नॆ मुझकॊ भी झुकनॆ नहीं दिया ॥

कुछ तर्कॆ-तआल्लुकात की दुश्वारियां तॊ थीं,
कुछ गर्दिशॊं नॆं भी मुझकॊ सम्हलनॆ नहीं दिया ॥

आज समंदर सा हॊता यकीनन रुतबा मॆरा,
दायरॊं नॆ कभी भी मुझकॊ पसरनॆ नहीं दिया ॥

मॆरॆ सफ़ीनॆ का मॆरा अपना नाखुदा था वॊ,
साहिल पॆ जिसनॆ मुझकॊ उतरनॆ नहीं दिया ॥

कॊशिशॆं तॊ बॆहिसाब की अपनॊं नॆ मगर,
गैरॊं की दुआवॊं नॆं मुझकॊ मरनॆ नहीं दिया ॥

बॆखबर है वॊ ज़िन्दा हूं मैं जिसकॆ वास्तॆ,
उसकी खामॊशी नॆ इज़हार करनॆ नहीं दिया ॥

उसकॆ दामन पॆ तहरीर लिखता तॊ कैसॆ,
अश्कॊं की मानिंद मुझकॊ गिरनॆ नहीं दिया ॥

छॊड़ दॆता दर,गली,शहर,महफ़िल मगर,
उसकॆ एक वादॆ नॆ मुझकॊ मुकरनॆ नहीं दिया ॥

रॆत पर खड़ा था मॆरी मॊहब्बत का मकां,
बुनियाद पॆ पत्थर तॊ उसनॆ धरनॆ नहीं दिया ॥

बड़ा कठिन है ज़मानॆ सॆ लड़ना "राज",
बुलंद हौसलॊं नॆ मुझकॊ बिखरनॆ नहीं दिया ॥

कवि-राज बुन्दॆली
११/०३/२०१२

2 comments:

manish bakshi said...

कोशिशें तो बेहिसाब की गैरों ने मगर...
अपनों की बददुआवॊं ने मुझे जीने नहीं दिया
(राज साहब गुस्ताखी माफ़ आपकी रचना के साथ छेड़खानी करने के लिए....लेकिन अगर ये पंक्तियाँ ऐसे होती तो आपके विचार जानना चाहूँगा...मैं कोई लेखक नहीं हूँ...बस अच्छी रचनाएं पडने और सुनने का शौंक है...)

संजय भास्‍कर said...

बहुत खुबसूरत ग़ज़ल.......दाद कबूल करें।