Tuesday, June 13, 2023

चन्द्रशेखर आज़ाद

चंद्रशेखर "आज़ाद"
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उदयाचल से अस्तातल तक इसकी जय जयकार रही,
शिक्षा और ज्ञान की इस पर बहती सतत बयार रही,

वैभव में दुनियाँ का कोई देश न इसका सानी था,
शौर्य पराक्रम का पोषक इस भारत भू का पानी था,

यहाँ सिकंदर,सेल्युकस नें आकर घुटनें टेक दिए,
अन्य कई आक्रांता इसने जड़ उखाड़ कर फेंक दिए,

हूण कुषाण यवन अफ़गानी इसने हाथों हाथ लिए,
क्रूर मुगलिया शासन के भी इसने खट्टे दाँत किये,

किन्तु आपसी विघटन इसके शीश गुलामी धार गया,
प्रबल पराक्रम वाला भारत अंग्रेजो से हार गया,

चोर लुटेरों से जाकर खुद पहरेदार मिले थे,
घर का भेद बताने वाले घर के गद्दार मिले थे,

व्यापार बढ़ाने आये थे किन्तु विधाता बन बैठे,
और हमारे शौर्य शिरोमणि उनके त्राता बन बैठे,

ऐसा ही कुछ हुआ हिन्द में अंग्रेज़ों के आने पर,
ताज और तलवारें रख दीं जा उनके पैताने पर,

सारा भारत त्रस्त हुआ जब बर्बर अत्याचारों से,
तभी क्रान्ति का ज्वार उठा था जन जन की हुंकारों से,

आज़ादी का शंखनाद सम्पूर्ण हिन्द में गूँज उठा,
क्रांतिवीर बन बच्चा बच्चा समर भवानी पूज उठा,

गाथा आज सुनाता हूँ मैं रक्तिम क्रांति कहानी की ।।
पिस्टल और जनेऊधारी अमर वीर बलिदानी की ।।(1)

धधक रहा था सारा भारत गोरों के आतंकों से,
अगणित दंश मिले थे हमको उन ज़हरीले डंकों से,

हर ओर बवंडर छाया था कलुषित अत्याचारों का,
उसी समय दावानल धधका इन्कलाब के नारों का,

बूढ़े बाल जवान चले थे कफ़न बाँधकर खादी का,
माता बहनें निकल पड़ी थीं मन्त्र लिए आज़ादी का,

धरनें और प्रदर्शन होते गुप्त सभाएँ होती थीं,
भोर सुहागिन रहीं शाम को सूनी माँगे रोती थीं,

दमन चक्र जोरों पर था उन अंग्रेजी मक्कारों का,
चौराहों पर मर्दन होता जनता के अधिकारों का,

आवाज़ उठाने वालों को गोली का उपहार मिला,
कालापानी मिला किसी को फाँसी का गलहार मिला,

ठूँस दिए जेलों में लाखों अगणित कोड़े बरसे थे,
रोटी की तो बातें छोड़ो पानी तक को तरसे थे,

कहीं कहीं तो जेलों में कुछ ऐसे ज़ुल्म ढहाते थे,
लाचार कैदियों से सैनिक कोल्हू तक चलवाते थे,

बिलख रही थी भारत माता बँधी हुई जंज़ीरों में,
बनी बन्दिनी सिसक रही थी अपनी ही प्राचीरों में,

आज़ादी की ज्वाला भड़की बूढ़े बाल जवान चले,
करो मरो का राष्ट्र मन्त्र ले अपना सीना तान चले,

सीताराम तिवारी के घर,कोंख जगी जगरानी की ।।(2)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,

शेखर का जब जन्म हुआ तब आपस में ग्रह ऐंठे थे,
सूर्य चन्द्रमा मंगल राहू जन्म लग्न में बैठे थे,

कर्क लग्न अश्लेषा उस पर मारकेश था योग प्रबल,
मंगल सूर्य चन्द्र की युति से जातक बना अजेय सबल,

धन्य हुआ था ग्राम भाबरा जिसमें ऐसा पुष्प खिला,
धन्य हुई थी भारत माता जिसको ऐसा लाल मिला,

जंगल की गोदी में खेला जंगल उसके रक्षक थे,
निर्भीक निडर फिरता था वह,जहाँ जानवर भक्षक थे,

खूँखार भेडियों से लड़ना बचपन में ही सीख गया,
तीर कमान निशानेबाजी छुटपन में ही सीख गया,

शहर बनारस में शेखर की जब चल रही पढाई थी,
असहयोग आंदोलन नें भी ली पूरी अँगड़ाई थी,

राष्ट्रवाद की ज्वाला में तप शेखर मूँछ तरेर चला,
आज़ादी की डोली लाने भारत माँ का शेर चला,

शंखनाद कर निकल पड़ा था जोश युवाओं में भरने,
राष्ट्रधर्म के हवन कुण्ड में,साँसों की आहुति करने,

उग्र क्रान्ति में युवा वर्ग के शेखर ही सञ्चालक थे,
पन्द्रह कोड़ों की सजा मिली चौदह साला बालक थे,

हर प्रहार पर भारत माँ का शेखर ने जयघोष किया,
स्वतंत्रता के महा मंत्र का नाहर ने उद्घोष किया।।

लाज बचाने निकल पड़ा वह,सतर नदी के पानी की ।।(3)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,,,

अँग्रेजो के कुछ चमचे भी राष्ट्र भक्त थे बने हुए,
ईस्ट इंडिया के कृपा पात्र शेखर से थे तने हुए,

काकोरी घटना से शासन अब तक आग बबूला था,
सारी फौजें नाच रही थीं,शेखर पण्डित दूल्हा था,

अंग्रेज सिपाही पंडित पर,घात लगाए बैठे थे,
एक सिंह पर लाखों गीदड़,ताक लगाए बैठे थे,

शेखर का प्रण था जीते जी,इनके हाथ न आऊँगा,
प्राणों की हवि देकर माँ पर,मैं शहीद हो जाऊँगा,

राजगुरू सुखदेव भगत की वह फाँसी रुकवाने को,
चाचा नेहरू के घर पहुँचे अपनी बात सुनाने को,

बात नहीं बन पाई कुछ तो शेखर वापस लौट पड़े,
अल्फ़्रेड पार्क में जामुन से टेक लगाकर हुए खड़े,

बिना किसी लालच के घर में,फूट नहीं हो सकती है,
बिना किसी भेदी के घर में,लूट नहीं हो सकती है,

अपना वर्चस्व बढ़ाने को,कृत्य घिनौना कर डाला,
गोरों के कृपा पात्र नें शेखर का सौदा कर डाला,

अल्फ्रेड पार्क में शेखर की खबर बता दी गोरों को,
रखवाली करने वाले नें राह बता दी चोरों को,

पलक झपकते ही फौजों नें,पार्क समूचा घेर लिया,
एक दृष्टि नें शेखर की यह,सारा चित्र उकेर लिया,

गरज उठा बमतूल बुखारा,ज्यों हुंकार भवानी की ।।(4)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,,,

चलनें लगीं तड़ातड़ गोली,आसमान भी काँप गया,
अंतिम युद्ध आज है अपना,शेखर का मन भाँप गया,

आज हजारों बन्दूको का,लक्ष्य अकेला शेखर था,
और हजारों पर भारी भी,एक अकेला शेखर था,

जिस ओर निशाना साध लिया उसका दृश्य भयंकर था,
भारत माँ का बेटा शेखर बना आज प्रलयंकर था,

मानों कोई गरुड़ युद्ध में सर्प हजारों निगल रहा,
या अभिमन्यू चक्रव्यूह में प्रलय मचाने मचल रहा,

जबतक रहीं गोलियाँ शेखर लड़ता रहा दरिन्दों से,
अंतिम गोली शेष बची तो कहने लगा परिन्दों से,

सुनो व्योम के प्रहरी मेरी बात बताना जन जन को,
मातृभूमि पर अर्पित कर दें भारतवासी तन मन को,

तभी जाँघ में गोली आकर,लगी गूँज कर शेखर के,
बोली धन्य हुआ यह जीवन,चरण पूज कर शेखर के,

पड़ी रक्त की बूँद धरा पर,धरती का शृंगार किया,
भारत माता रो कर बोली,तूने कर्ज उतार दिया,

शेखर बोला प्राणदायिनी क्षमादान दे माँ मुझको,
अंग्रेजों से दिला न पाया मैं स्वतंत्रता माँ तुझको,

फिर मुट्ठी में मिट्टी लेकर,अंतिम नमन किया उसने,
लगा कनपटी से पिस्टल का,घोड़ा दबा दिया उसने,

जय जय करनें लगीं दिशाएँ,शेखर की कुरबानी की ।।(5)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,

कोयल रोई कागा रोये,रोये मधुकर मैना थे,
शेखर के इस प्राणदान पर,भीगे सबके नैना थे,

जिन गायों का दूध पिया था,मूक बधिर  वो खड़ी मिलीं,
दृष्टि लगाए देख रही थीं कुछ अचेत सी पड़ी मिलीं,

तोता तीतर और गिलहरी सबका जत्था रोया था,
शेखर जी की कुर्बानी पर पत्ता पत्ता रोया था,

उड़े उड़े से रंग हुए थे,सब तितली की पाॅंखों के।
झुके हुए थे शीश नमन में,उपवन की सब शाखों के।।

राजनीति के उन गिद्धों के,हर्ष हृदय में छाया था,
शेखर को मरवाने का यह,जिननें व्यूह रचाया था,

पीठ तने से टिकी हुई थी,लगता वह अधलेटा था,
प्रण का पक्का पंडित शेखर,भारत माँ का बेटा था,

आज़ाद जिया आज़ाद रहा,मरा नहीं आज़ाद कभी,
इस मातृभूमि के कण कण में,शामिल है आज़ाद अभी,

शेखर की हत्या के कारण शासन यूँ घबराया था
गुप्त तरीके से गोरों ने शव का दाह कराया था,

किन्तु जहाँ पर शेखर जी ने प्राण पखेरू त्यागे थे,
लोग वहाँ की पावन मिट्टी खोद खोद कर भागे थे,

वह जामुन का वृक्ष आज भी खड़ा दुहाई देता है,
उसकी साँसों में शेखर का,नाम सुनाई देता है,

गाथा गाती "राज" लेखनी,ऐसी शौर्य जवानी की ।।(6)
पिस्टल और जनेऊधारी,,,,,,,,,,,,

******************
डॉ राज बुन्देली (मुम्बई)
10/06/2023
******************

,(मित्रता)

अतुकान्त,,,,(मित्रता)
*****************
बदले हुए भाव,
भाषा,परिभाषा,
मूल्य,चिन्तन,चेतना,
मृतप्राय संवेदना,
संस्कृति,संस्कार,
आचार-विचार,
आहार,व्यवहार,
उपदेश,परिवेश,
हाय रे मेरे देश,,,,
दुनिया को मित्रता की,
परिभाषा सिखलाने वाला,
खगोल की खोल दिखलानें वाला,
विद्याओं,कलाओं में निपुण,
कहां गए तेरे सारे गुण,
कुण्ठा,घृणा,निन्दा,
लोभ,स्वार्थ,हिंसा के
खूँ-रेज़ जबड़े,
नित प्रति मानव की सोच को,
दबोच रहे हैं
आदर्शों और मर्यादाओं को नोंच रहे है
लज्जा का चीरहरण करते
सीमित कपड़े,
गिरता हुआ
मानवता का ग्राफ
दिखाई दे रहा है साफ साफ,
इसके बावजूद,,
कायम है
अब तक मित्रता,
बदले हुए स्वरूप में,
विकास की धूप में,
देखा है मैनें,,,,
कई बार सुदामा से
आँखें चुराकर भागते हुए
कृष्ण को,
कुण्ठित कौरवों को,
देते हुए अर्जुन के सारे भेद,
है इसी बात का खेद,
कलयुग का भरत
अब नहीं लौटाना चाहता राम को
अवधपुर का सिंहासन,
सुग्रीव नें भी ठुकरा दिया है
राम से मित्रता का प्रस्ताव,
क्योंकि,,,,
रावण दे रहा है दोस्ती का दोगुना भाव,
कलयुग में
मित्र-प्रेम हो चुका है
एकदम,,,,चाइना-मेड
आज,,मित्रता का स्वरूप तो
चाय के डिस्पोजेबल गिलास के
अलावा कुछ नहीं,
रिश्तों के अर्थ बदलकर
सिर्फ 'अर्थ' के व्यूह में सिमटे हुए हैं,
नाग चन्दन के वृक्षों को छोड़कर
बबूलों से लिपटे हुए हैं,
काश !
फिर से कोई डाकू, त्यागकर हथियार,
बन जाए वाल्मीक,उठा ले हाँथों में कलम,
सृजित करे शब्दों की हुंकार,
लिखे वर्तमान की नीति का निर्धारण,
काल के बदलते चरित्र का चित्रण,
आदर्शों की परिभाषा,मानवता का मूल्य,
मर्यादा का मंथन,सत्य का स्वरूप,
सीता की गुहार,न्याय का अधिकार,
अग्नि परीक्षा का पर्याय,
अर्थात,,,,सत्य का नया अध्याय,
ताकि,,
फिर से,,कोई जटायू
असहाय अबला को बचानें हेतु
लगा दे प्राणों की बाजी,
फिर अवतरित हो महाबली हनुमान,
जो जला दे,
द्वेष,कुण्ठा,ईर्ष्या,लोभ,स्वार्थ की समूची लंका,
घर से न निकाली जाए कोई सीता,
अदालत की दहलीज़ को लाँघकर
बाहर निकल सके पवित्र गीता,
अब तो,खत्म हो प्रभु श्रीराम का वनवास,
उनके लिए हरेक दिल में बन सके आवास,
केवट का कठौता प्रेम रस की दुहाई दे ।।
कविता में कहीं तुलसीदास भी दिखाई दे ।।
कवि : डॉ."राज बुन्देली"
(मुम्बई)
09321010105 / 08080556555

Sunday, April 23, 2017

अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,,,,,

नंदनवन में आग,,
************
नंदनवन मॆं आग लगी है,पता नहीं रखवालॊं का,
कैसॆ कोई करे भरोसा,कपटी दॆश दलालॊं का,
भारत माता सिसक रही है,आतंकी ज़ंज़ीरॊं मॆं,
जानॆं किसनें लिखी वॆदना,इसकी हस्त लकीरॊं मॆं,
घाट घाट पर ज़ाल बिछायॆ,बैठॆ कई मछॆरॆ हैं,
देखी मछली कंचन काया,आज उसॆ सब घॆरॆ हैं,
आज़ादी कॆ बाद बनायॆ,मिल कर झुण्ड सपॆरॊं नॆं,
बजा-बजा कर बीन सुहानी,लूटा दॆश लुटॆरॊं नॆं,
भारत माँ कॊ बाँध रखा है,भ्रष्टाचारी डॊरी मॆं,
इन की कुर्सी रहॆ सलामत,जनता जायॆ हॊरी मॆं,
जिनकॊ चुन कर संसद भॆजा,चादर तानॆ सॊतॆ हैं,
संविधान कॆ अनुच्छॆद अब,फूट फूट कर रॊतॆ हैं,
भारत माँ की करुण कृन्दना,आऒ तुम्हॆं सुनाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(१)

आग उगलतीं आज हवायॆं,झुलस रही फुलवारी है,
भरी अदालत मॆं कौवॊं की,कॊयल खड़ी बिचारी है,
चंदन की बगिया मॆं कैसॆ,अभयराज है साँपॊं का,
भारत माता सॊच रही है,अंत कहाँ इन पापॊं का,
कहाँ क्रान्ति का सूरज डूबा,हॊता नहीं सबॆरा है,
आज़ादी कॆ बाद आज भी,छाया घना अँधॆरा है,
कहाँ गई वह राष्ट्र चेतना,कहाँ शौर्य का पानी है,
राजगुरू सुखदॆव भगत की,सोई कहाँ जवानी है,
मंगलपांडे और ढींगरा,मतवाले आज़ादी के,
कहाँ गए आज़ाद सरीखे,रखवाले आज़ादी के,
जिनकॆ गर्जन कॊ सुन करके,धरा गगन थर्रातॆ थॆ,
इंक़लाब के नारे सुन सुन,गोरे दल घबरातॆ थॆ,
आज़ादी के स्वर्ण कलश की,तुम्हें झलक दिखलाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(२)

दीवानॊं कॆ रक्त-बिन्दु मॆं,इन्क़लाब का लावा था,
आज़ादी की खातिर मिटना,उनका सच्चा दावा था,
राष्ट्र चॆतना राष्ट्र भक्ति मॆं,नातॆ रिश्तॆ भूल गये,
हँसतॆ हँसते वह मतवालॆ,फाँसी पर थे झूल गये,
भूल गयॆ वो सावन झूलॆ,भूल गयॆ तरुणाई वो,
भूल गयॆ वो फाग फागुनी,भूल गयॆ अमराई वो,
भूल गयॆ वॊ दीप दिवाली,भूल गयॆ राखी हॊली,
भूल गयॆ वह ईद मनाना,भूल गये बिंदिया रोली,
भारत माँ कॊ गर्व हुआ था,पा ऎसॆ मतवालॊं कॊ,
रॊतॆ रॊतॆ कॊस रही अब,गुज़रॆ इतनें सालॊं कॊ,
धन्य धन्य हैं वह मातायॆं,लाल विलक्षण जो जायॆ,
धन्य धन्य वॊ सारी बहनॆं,बन्धु जिन्होंनें ये पायॆ,
धन्य हुई यॆ शब्द-वाहिनी,धन्य स्वयं कॊ पाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(३)

भारत माँ का वीर लड़ाका,जब सरहद पर जाता है,
एक एक परिजन का सीना,गर्वित हो तन जाता है,
बड़ॆ गर्व सॆ पिता पुत्र की,करता समर-बिदाई है,
बड़ॆ गर्व सॆ अनुज बन्धु कॊ,दॆता राष्ट्र दुहाई है,
बड़ॆ गर्व सॆ बहना कहती,लाज बचाना राखी की,
बड़ॆ गर्व सॆ भाभी कहती,तुम्हॆं कसम बैसाखी की,
बड़ॆ गर्व सॆ पत्नी आकर,कॆशर तिलक लगाती है,
बड़ॆ गर्व सॆ राष्ट्र भक्ति कॆ,मैया गीत सुनाती है,
भारत का तब वीर लड़ाका,लॆ आशीषॊं की झॊली,
शामिल हॊता जाकर दॆखॊ,जहाँ बाँकुरॊं की टॊली,
झुकनॆ पाया नहीं तिरंगा,इंकलाब नभ गूँजा है,
शीश चढाकर भारत माँ कॊ,इन वीरों ने पूजा है,
ऐसे वीर सपूतॊं की मैं,शौर्य वन्दना गाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(४)
डॉ. राज बुन्दॆली
(मुम्बई)
09321010105 / 08080556555

Saturday, April 22, 2017

गाँधी जी......

गाँधी जी......
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चौराहॆ पर खड़ी,गाँधी जी की प्रतिमा सॆ,हमनें प्रश्न किया,
बापू जी दॆश कॊ आज़ादी दिला कर, आपनॆं क्या पा लिया,
बापू आपके सारॆ कॆ सारॆ सिद्धांत आज ना-काम हॊ रहॆ हैं,
यहाँ तो लॊग दांडी नमक खाकर,नमक हराम हॊ रहॆ हैं !!(१)
आपनॆं सत्य का नारा लगाया,तॊ असत्य कॊ कुर्सियाँ मिलीं,
आपनें दी अहिंसा को आवाज़,तॊ आप पर गॊलियाँ चलीं,
यहाँ एक-एक नॆताऒं कॆ,अनगिनत ना-ज़ायज धंधॆ हैं,
खादी कॆ लिबास मॆं लिपटॆ,कुर्सियॊं पर खूनीं दरिंदॆ हैं !!(२)
ये चित्र से अलग अलग हैं,मगर चरित्र से सब सगॆ हैं,
तुम्हारॆ सपनॊं कॆ भारत कॊ,आज सब बॆंचनॆं में लगॆ हैं,
बापू जी आपनें जिस छड़ी से,गोरों को देश से खदेड़ा है,
आज के नेताओं ने उसी छड़ी से जनता को उधेड़ा है !!(3)
आपके तीनों बन्दर भी अपनें गुण धर्म बदल चुके हैं,
भौतिकता की दौड़ में वह बहुत आगे निकल चुके हैं,
वो बुरा सुन रहे हैं बुरा देख रहे हैं और बुरा कह रहे हैं,
बापू वो तो ज्ञानगंगा की विपरीत दिशा में बह रहे हैं !!(4)
मध्यम वर्ग रोटी और लँगोटी दोनों के लिए तरस रहा है,
भ्रष्टाचारियों के खज़ानों पर कुबेर का स्नेह बरस रहा है,
इस देश की जनता रात दिन खून कॆ आँसू पी रही है,
राम भरॊसॆ जी कॊ चुना,और राम भरॊसॆ जी रही है !!(5)
दॆश का किसान आज भी,साहूकारॊं कॆ गॊदाम भर रहा है,
कर्ज के बोझ में दबा बेचारा,रोज आत्म-हत्या कर रहा है,
आधे पॆट खा कर भी वह,अपनें सारे ग़मॊं कॊ भूल जाता है,
बेटी की बिदाई करनें के बाद,फ़ांसी के फंदे में झूल जाते है !!(6)
दॆश का मज़दूर भूखा पैदा हॊकर,भूखा ही मर जाता है,
उम्र भर मेहनत करता है, मगर पॆट नहीं भर पाता है,
यहां काबिल शिक्षित बॆरॊजगार,सड़कॊं पर भटक रहॆ हैं,
और आरक्षण के दत्तक पुत्र,कुर्सियों पर माल गटक रहॆ हैं !!(7)
बापू अंधॆ समाज कॆ सामनॆं, चीखती खड़ी द्रॊपदी है,
दहॆज़ कॆ हवन मॆं जल रही,रॊज कॊई न कॊई सती है,
यहाँ रॊज अग्नि परीक्षा दॆ रही,कॊई न कॊई सीता है,
यहाँ सिसकता हुआ कुरान है,और रॊती हुई गीता है !!(8)
आज आप खुद भी धूप और ठंड से यहाँ छटपटा रहॆ हैं,
मंदिर कॆ लिए राम,अदालत का दरवाजा खटखटा रहॆ हैं !
यहां राम राज्य की कल्पना, करना एक-दम ब्यर्थ है,
वैष्णॊ जन तॊ तैणॆ कहियॆ, का बताइयॆ क्या अर्थ है !!(9)
लाल किलॆ मॆं विस्फ़ॊट,संसद मॆं गॊलियॊं की बौछार,
देश में आतंक का तांडव,धर्म के नाम पर नरसंहार,
हमारे धर्म-स्थलॊं कॊ,कतिलॊं की नज़र लग गई है,
भारत मां की यह बसंती, चुनरिया खून सॆ रंग गई है !!(10)
इतना सुनतॆ ही गांधी कॆ पुतलॆ सॆ एक आवाज़ आई,
तुम हिंदू हॊ,मुसलमान हॊ,या फिर हॊ सिक्ख-ईसाई,
मगर इस जलतॆ हिंदुस्तान,कॊ तॊ बचा लॊ मॆरॆ भाई,
मेरे सपनों के इस गुलिस्तान,कॊ बचा लॊ मॆरॆ भाई !!(11)
"कवि-राज बुंदॆली"

,संवेदना,,,

,,,,,,,,,संवेदना,,,,,,
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कभी कभी सोचता हूँ
मैं भी व्यक्त करूँ संवेदना
सबकी तरह,
लोगों के घरों में जाकर
खाते हुए पकौड़े
और आलू के पराठे
या फिर,,,,
किसी चाय की दूकान पर
बैठे दो चार निहायत
भिड़ाऊखोर मसखरिया मिज़ाज़
निठल्लों के साथ लेते हुए गर्म चाय की चुस्कियाँ,
और खींचते हुए विदेशी सिगार के
लंबे कश,
छोड़ते हुए मुँह से
रेल के इंजन की तरह
छल्लेदार धुँए के गुब्बारे,
या फिर,,
किसी मदिरालय की
बेन्च के सामने बैठकर उड़ेल दूँ
सारी संवेदना,
उफनती शराब के गिलास में,
सुबह सुबह उठकर
बाबा रामदेव के बताये
योग की तरह करता हूँ रिहर्सल संवेदना व्यक्त करनें की,
मगर फिर भी,
नहीं सीख पाया हूँ नेताओं,मंत्रियों,साहूकारों
जमीदारों,धन्नासेठों की तरह
संवेदना व्यक्त करना,
आँखों से आँसू बहाना और भीतर से मुस्कराना,
नहीं हो पाया है
आज तक मुझसे संवेदना व्यक्त करने का अभिनय,
अभी अभी टेलीविजन पर भी
कुछ लोग बहा रहे थे आँसू,
देखकर नष्ट होता हुआ
कालाधन,
व्यक्त कर रहे थे संवेदना
स्वयं के प्रति,
जनता को अगुआ बनाकर,
न जानें,
दोरंगे लोग कैसे निभा लेते हैं कई किरदार एक साथ,
बेचैन हो उठते है
कुछ लोग,
संवेदना व्यक्त करने के लिए, अवसर की तलाश में
लगे रहते हैं, रात दिन,
भूकम्प,बाढ़,सूखा,
और महामारी का इन्तज़ार करते रहते हैं पलकें बिछाये,
कब कोई
सैनिक शहीद हो,
कब कोई
किसान लटके फाँसी के फंदे से,
कब कोई
बलात्कार की शिकार दम तोड़े,
इन्तज़ार करते रहते हैं
इनके कड़क क्रीच वाले सफेद पोशाक,
बेताब रहती हैं एक साथ जलनें को मोमबत्तियाँ,
क्योंकि,,,,
सफेद पोशाक
और
जलती हुई मोमबत्ती के साथ
साफ साफ दिखाई देती है
व्यक्त होती हुई संवेदना
कैमरे के सामनें,
हाँथों में लगभग 500 रूपये
कीमत वाली गुलाब के फूलों की गोलाकार कुंडी
बना देती है अति-विशिष्ट इनकी संवेदना को,
फुटपाथ पर भूख से
बिलबिलाते,भीख माँगते,
चीथड़ों में लिपटे
अनाथ बच्चे
कभी दिखाई नहीं देते इनकी संवेदना को,
महलों की संवेदना कभी नहीं पहुँचती उन झोपड़ों तक
जिनको तोड़कर उनकी छाती पर खड़ी कर दी गईं हैं
गगन चूमती बहुमंज़िली इमारतें,
सोचता हूँ,,,आखिर,
किसके प्रति संवेदना व्यक्त करे
यह कलम,
बहुत कुछ कहना चाहती है
संवेदना में बहना चाहती है
यह कलम,,,
आँधियों से लड़ी है
कभी शबरी तो कभी अहिल्या बनकर खड़ी है
कह रही है
जिस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम
प्रभु श्रीराम के दर्शन पाएगी ।।
यह कलम त्रिकालदर्शी ऋषि वाल्मीकि की कलम बन जायेगी ।।
डॉ राज बुन्देली
(मुम्बई)
09321010105
08080556555

Thursday, September 19, 2013

भारत माँ की पीड़ा,,,,,,

भारत माँ की पीड़ा,,,,,,
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फूलॊं कॆ गुल-दस्तॊं मॆं जब,अंगारॆ जय बॊल रहॆ हॊं ॥
मानवता कॆ हत्यारॆ जब, गरल द्वॆष का घॊल रहॆ हॊं ॥
सत्ता कॆ आसन पर बैठॆ, कालॆ बिषधर डॊल रहॆ हॊं ॥
जनता की आहॊं कॊ कॆवल,कुर्सी सॆ ही तॊल रहॆ हॊं ॥

तब आज़ादी  की परिभाषा, भी लगती यहाँ अधूरी है ॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह,का आना बहुत जरूरी है ॥१॥

जब लॊक-तंत्र की आँखॊं सॆ, खारॆ धारॆ बरस रहॆ हॊं ॥
मज़दूरॊं कॆ बच्चॆ दिन भर,दॊ रॊटी कॊ तरस रहॆ हॊं ॥
वह अनाज का शिल्पी दॆखॊ, रॊतॆ-रॊतॆ मर जाता है ॥
आनॆ वाली पीढ़ी पर भी, अपना कर्जा धर जाता है ॥

उस बॆचारॆ  कॆ हिस्सॆ  मॆं, कॆवल उस की  मज़दूरी है ॥२॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह, का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

दिल्ली की खूनी सड़कॊं पर,दुर्यॊधन का आतंक फलॆ ॥
किस मनमॊहन कॆ बलबूतॆ,द्रॊपदी आज नि:शंक चलॆ ॥

घर सॆ बाहर इज़्ज़त उसकी, अब लगी दाव मॆं पूरी है ॥३॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह, का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

उन अमर शहीदॊं कॆ सारॆ,सपनॆ चकना चूर हुयॆ हैं ॥
आज़ादी  कॆ रखवालॆ यॆ,जब सॆ कुछ लंगूर हुयॆ हैं ॥
मक्कारी की सारी सीमा, यॆ अपघाती लाँघ चुकॆ हैं ॥
घॊटालॊं कॆ कवच दॆखियॆ, यॆ सिरहानॆ बाँध चुकॆ हैं ॥

ऎसॆ जयचंद मिलॆ हमकॊ,मुख मॆं राम बगल मॆं छूरी है ॥४॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

सीना तानॆ खड़ा कुहासा, जब सूरज कॊ धमकाता हॊं ॥
जहाँ कलम का साधक भी, पैसॊं पर गीत सुनाता हॊं ॥
भारत की पीड़ा  का गायक, मैं इसकी पीड़ा  गाऊँगा ॥
इन्कलाब का नारा लॆकर,घर-घर मॆं अलख जगाऊँगा ॥

अंगारॊं  की  भाषा  लिखना, अब मॆरी भी मज़बूरी है ॥५॥
भारत मॆं फिर सॆ भगतसिंह का,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कवि-"राज बुन्दॆली"
१६/०७/२०१३

गज़ल,,,,,,,,,,,,,,,

वही रातॆं  वही आहॆं, वही ख़त संग आँसू भी ॥
सतातॆ हैं हमॆं मिलकॆ, मुहब्बत संग आँसू भी ॥१॥

कभी हँसना कभी रॊना,कभी खॊना कभी पाना,
सदा मुँह मॊड़ लॆतॆ हैं, तिज़ारत संग आँसू भी ॥२॥

हमारॆ नाम का चरचा, जहाँ दॆखॊ वहाँ हाज़िर,
हमॆं दॆतॆ बड़ी तक़लीफ़ॆं,शिकायत संग आँसू भी ॥३॥

सदा इल्ज़ाम दॆता है, ज़माना बॆ-वफ़ा कह कॆ,
नहीं अब साथ दॆतॆ यॆ, इबादत संग आँसू भी ॥४॥

नहीं हॊती ख़ुदा तॆरी, दुआ औ बन्दगी मुझसॆ,
भला कैसॆ सँभालूं मैं, तिलावत संग आँसू भी ॥५॥

कभी तॊड़ा कभी जॊड़ा,गमॆ-दिल का यही रॊना,
हक़ीमॊं की बदौलत हैं, तिबाबत संग आँसू भी ॥६॥

इरादॆ ज़िन्दगी कॆ हम, नहीं समझॆ नहीं जानॆ,
पड़ॆ भारी सराफ़त पर, बगावत संग आँसू भी ॥७॥

निभा लॊ दुश्मनी अपनी,अभी साँसॆं बकाया हैं,
हमॆं अब रास आयॆ हैं, अदावत संग आँसू भी ॥८॥

यही हमराह हैं अब तॊ, इबादत जुस्तजू तॆरी,
मुझॆ मंजूर हैं बॆ-शक, इनायत संग आँसू भी ॥९॥

वही चाहत वही उल्फ़त,वही बरसात का मौसम,
वही  उम्मीद तन्हाई, ज़ियारत  संग आँसू भी ॥१०॥

वही आदत वही हालत, फ़टा कुरता बढ़ी दाढ़ी,
घटी सॆहत लुटी चाहत, शराफ़त संग आँसू भी ॥११॥

लुटॆ सपनॆं मिटॆ अरमां, अमीरी नॆ दियॆ कॊड़ॆ,
रुलातॆ खूब हैं हम कॊ, हरारत संग आँसू भी ॥१२॥

हमारॆ पास मॆं क्या है,न दौलत है न ताक़त है,
ख़िलाफ़त मॆं खड़ॆ दॆखॊ,सियासत संग आँसू भी ॥१३॥

वही मतला वही मक्ता, वही बह्र-ए- रवानी है,
वही अरक़ान मॆं दॆखॊ, हिफ़ाज़त संग आँसू भी ॥१४॥

सदाकत सॆ निभाता है,सदा किरदार अपना वॊ,
झरॆ हैं "राज"कॆ कितनॆं,क़यामत संग आँसू भी ॥१५॥

कवि-"राज बुन्दॆली"
०५/०८/२०१३