अधूरॆ हैं हम,,,,,,
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कहनॆ कॊ यूं तॊ, भरॆ पूरॆ हैं हम ।
मगर हकीकत मॆं, अधूरॆ हैं हम ॥
...
जब जैसा चाहॆ नचाता है हमकॊ,
वक्त की डुगडुगी कॆ ज़मूरॆ हैं हम ॥
सिर्फ़ कॊई छॆड़ दॆ, भला, या बुरा,
झनझना उठतॆ ऎसॆ तमूरॆ हैं हम ॥
बांटतॆ फ़िर रहॆ,नफ़रत का ज़हर,
इंसान कॆ रूप मॆं भी धतूरॆ हैं हम ॥
किस मुंह सॆ कब, किसॆ काट लॆं,
दॊ मुंह वालॆ वॊ कनखजूरॆ हैं हम ॥
गांधी कॆ बंदरॊं सॆ सीखा है "राज",
गूंगॆ हैं, बहरॆ हैं, और सूरॆ हैं हम ॥
कवि-राज बुन्दॆली
१९/०१/२०१२
Thursday, January 19, 2012
Sunday, January 8, 2012
हम सॆ लगाया नहीं जाता.........
हम सॆ लगाया नहीं जाता.........
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झड़तॆ बालॊं मॆं खिज़ाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ।
उड़ती सांसॊं का हिसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥१॥
अपना किरदार हमॆशा , खुली किताब रहा है प्यारॆ ,
चॆहरॆ पर कॊई नकाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥२॥
कल शाम उनकॊ दॆखा , हमनॆं जॊ गैर की बांहॊं मॆ,
उनकॆ बालॊं मॆं गुलाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥३॥
भगतसिंह जैसॆ दस कॊ , हम लगा दॆतॆ फ़ांसी पर,
अकॆला कमीना कसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥४॥
गणित प्रॊफ़ॆसर हैं हम , जानतॆ हैं सारॆ गुणनफ़ल,
उसकॆ खर्चॆ का हिसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥५॥
निगलतॆ जा रहॆ हैं नॆता , मिल कर देश कॊ "राज",
इनकी गर्दन पर दाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥६॥
कवि-"राजबुन्दॆली"
२/१/२०१२
झड़तॆ बालॊं मॆं खिज़ाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ।
उड़ती सांसॊं का हिसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥१॥
अपना किरदार हमॆशा , खुली किताब रहा है प्यारॆ ,
चॆहरॆ पर कॊई नकाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥२॥
कल शाम उनकॊ दॆखा , हमनॆं जॊ गैर की बांहॊं मॆ,
उनकॆ बालॊं मॆं गुलाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥३॥
भगतसिंह जैसॆ दस कॊ , हम लगा दॆतॆ फ़ांसी पर,
अकॆला कमीना कसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥४॥
गणित प्रॊफ़ॆसर हैं हम , जानतॆ हैं सारॆ गुणनफ़ल,
उसकॆ खर्चॆ का हिसाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥५॥
निगलतॆ जा रहॆ हैं नॆता , मिल कर देश कॊ "राज",
इनकी गर्दन पर दाब , हम सॆ लगाया नहीं जाता ॥६॥
कवि-"राजबुन्दॆली"
२/१/२०१२
कवित्त,,,,
फ़ागुन के महीने में नशा ऎसा हुआ,
जड़ पॆड़ आम के भी बौराने लगे हैं ॥
बही मादकता महुआ की डाल-डाल ,
पलाश तरु वसंत-गीत गाने लगे हैं ॥
सरिता के तीर निरखत मयंक-मुख,
चकवा-चकवी दोऊ इतराने लगे हैं ॥
कहॆ कवि "राज" रितुराज आया जब,
बूढ़ों के दिमाग भी फ़ड़फ़ड़ाने लगे हैं ॥
खुद को जलाना पड़ता है,,,,,
खुद कॊ जलाना पड़ता है,,,,,
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कुछ खास मकसद सॆ यहां आना पड़ता है ।।
हरॆक कॊ अपना किरदार निभाना पड़ता है ॥१॥
वाह ! क्या बेवकूफ़ी है यॆ इश्क का फ़न्डा,
मज़नूं कॊ दॊनॊं का खर्चा उठाना पड़ता है ॥२॥
जॆब मॆं कुछ हॊ या न हॊ उसकी बला सॆ,
कह दॆ तॊ फ़िर सिनॆमा दिखाना पड़ता है ॥३॥
निहायत ज़ाहिल है वो समझॆ या न समझॆ,
अग़र अपना फ़र्ज है तॊ समझाना पड़ता है ॥४॥
मुस्कुरानॆ मॆं तकलीफ़ हॊती है अमीरॊं कॊ,
साथ निभानॆ कॆ वास्तॆ मुस्कुराना पड़ता है ॥५॥
वॊ तरकीबॊं सॆ चला रहॆ हैं दॆश का शासन,
हमॆं तरकीबॊं सॆ यहां घर चलाना पड़ता है ॥६॥
जानतॆ हैं हम कि कल यॆ डसॆंगॆ हमीं कॊ,
सांपॊं कॊ फ़िर भी तॊ दूध पिलाना पड़ता है ॥७॥
बातॊं सॆ बातिल वॊ लगता तॊ नहीं मगर,
आजमायॆ हुयॆ कॊ भी आजमाना पड़ता है ॥।८॥
हरॆक पर भरॊसा किया नहीं करतॆ हैं हम,
दुश्मनॊं सॆ भी तॊ हांथ मिलाना पड़ता है ॥।९॥
कायर नहीं हैं हम मगर पंगा नहीं लॆतॆ,
उसकॆ दरवाजॆ सॆ ही आना जाना पड़ता है ॥१०॥
यूं ही नहीं मिलता है सरॆ-राह साया कॊई,
बूढ़ॆ बरगद कॊ कटनॆ सॆ बचाना पड़ता है ॥११॥
ज़मानॆ कॊ रॊशनी दॆना कठिन है "राज",
चिराग बन कॆ खुद कॊ जलाना पड़ता है ॥१२॥
कवि-राज बुँदॆली
०३/०१/२०१२
कुछ खास मकसद सॆ यहां आना पड़ता है ।।
हरॆक कॊ अपना किरदार निभाना पड़ता है ॥१॥
वाह ! क्या बेवकूफ़ी है यॆ इश्क का फ़न्डा,
मज़नूं कॊ दॊनॊं का खर्चा उठाना पड़ता है ॥२॥
जॆब मॆं कुछ हॊ या न हॊ उसकी बला सॆ,
कह दॆ तॊ फ़िर सिनॆमा दिखाना पड़ता है ॥३॥
निहायत ज़ाहिल है वो समझॆ या न समझॆ,
अग़र अपना फ़र्ज है तॊ समझाना पड़ता है ॥४॥
मुस्कुरानॆ मॆं तकलीफ़ हॊती है अमीरॊं कॊ,
साथ निभानॆ कॆ वास्तॆ मुस्कुराना पड़ता है ॥५॥
वॊ तरकीबॊं सॆ चला रहॆ हैं दॆश का शासन,
हमॆं तरकीबॊं सॆ यहां घर चलाना पड़ता है ॥६॥
जानतॆ हैं हम कि कल यॆ डसॆंगॆ हमीं कॊ,
सांपॊं कॊ फ़िर भी तॊ दूध पिलाना पड़ता है ॥७॥
बातॊं सॆ बातिल वॊ लगता तॊ नहीं मगर,
आजमायॆ हुयॆ कॊ भी आजमाना पड़ता है ॥।८॥
हरॆक पर भरॊसा किया नहीं करतॆ हैं हम,
दुश्मनॊं सॆ भी तॊ हांथ मिलाना पड़ता है ॥।९॥
कायर नहीं हैं हम मगर पंगा नहीं लॆतॆ,
उसकॆ दरवाजॆ सॆ ही आना जाना पड़ता है ॥१०॥
यूं ही नहीं मिलता है सरॆ-राह साया कॊई,
बूढ़ॆ बरगद कॊ कटनॆ सॆ बचाना पड़ता है ॥११॥
ज़मानॆ कॊ रॊशनी दॆना कठिन है "राज",
चिराग बन कॆ खुद कॊ जलाना पड़ता है ॥१२॥
कवि-राज बुँदॆली
०३/०१/२०१२
चिराग ही घर जलाने लगे हैं,,,
लक्ष्य पर सब के निशाने लगे हैं ॥
असलियत अपनी दिखाने लगे हैं ॥१॥
उन कलियों ने मुस्कुरा क्या दिया,
मनचले भंवरे तो मंडराने लगे हैं ॥२॥
यकीनन इस शहर में चुनाव होगा,
यहां नेता कई पैदल आने लगॆ हैं ॥३॥
बंटने वालॆ हैं फ़िर वायदों के पुलाव,
अपने अपने परचम फ़हराने लगे हैं ॥४॥
श्रेष्ठता की दौड़ मॆं सब अंधे हो गये,
जुगनू भी सूरज को धमकाने लगे हैं ॥५॥
तूफ़ां कॊ निगल जायेंगे सोच कर,
देखो तिनके भी सर उठाने लगे हैं ॥६॥
उनसे अदब की उम्मीद मत रखना,
जो कान्वेंन्ट स्कूलो में जाने लगे है ॥७॥
अब क्या ज़माना आ गया है "राज़",
घर के चिराग ही घर जलाने लगे हैं ॥८॥
कवि-राजबुन्देली
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