Thursday, September 19, 2013

सच,तू सच मॆं,,,

सच ! तू सच मॆं, सच-सच बतला,क्यॊं न तुझसॆ प्यार करूँ ॥

तॆरी कटुता कॊ जग मॆं, कॊई शमन नहीं कर पाता,
तॆरी ग्रीवा मॆं बाहॆं डाल, कॊई भ्रमण नहीं कर पाता,
भाग रहा जग दूर दूर, क्यॊं तुझसॆ कुछ तॊ बतला,
दुविधा का विषय यही, है जग बदला या तू बदला,

दुत्कार रहा सारा जग तुझकॊ, क्यॊं न जग सॆ तक़रार करूँ ॥१॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

फिर तॆरॆ हॊतॆ जग मॆं, कैसॆ असत्य का राज्य हुआ,
तॆरी कुटिया टूटी-फूटी, असत्य अचल साम्राज्य हुआ,
सब हुयॆ उपासक उस कॆ, तॆरा नाम नहीं लॆनॆ वाला,
आज झूठ कॆ बाजारॊं मॆं, तॆरा दाम नहीं दॆनॆ वाला,

यॆ दुनिया तॆरा सम्मान गिरायॆ,मै क्यॊं न तॆरा सत्कार करूँ ॥२॥
सच, तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

तॆरी परछाई सॆ भी दूर, भागतॆ दॆखॆ मैनॆं लॊग यहाँ,
तॆरॆ कारण लाखॊं भूँख, फांकतॆ दॆखॆ मैनॆं लॊग यहाँ,
असहाय पड़ा तू भूखा-प्यासा,दॆख रहा हूँ तॆरी काया,
महा-विलास की चौखट पर,नर्तन करती झूँठी माया,

संज्ञा-हीन ऋचायॆं तॆरी मैं कैसे, मूक बधिरता स्वीकार करूँ ॥३॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

हॆ प्रबल प्रतापी सत्य-दॆव, है अम्बर सॆ ऊँचा रूप तॆरा,
सप्त-सिन्धु सॆ भी गहरा, दिनकर सॆ तॆज स्वरूप तॆरा,
फिर क्यॊं अँधियारॆ मॆं अपना,अस्तित्व छुपायॆ जीता है,
मॆरी तरह हलाहल जग का, तू भी मौन व्रती बन पीता है,

झंकृत कर दॆ मन कॆ तार-तार, मैं सदा सत्य हुंकार करूँ ॥४॥
सच,तू सच मॆं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

कवि - "राज बुन्दॆली"
०१/०७/२०१३

No comments: