Thursday, December 23, 2010

२२. भारत माँ का चीरहरण.........
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सचमुच
कॊई नहीं बचा है,
हम सभी तॊ घिरॆ हैं,
आवश्यक्ताऒं कॆ चक्रव्यूह मॆं,
महाभारत कॆ अभिमन्यु की तरह,
तॊड़तॆ जा रहॆ हैं
हर एक अवरॊधक द्वार,
निरंतर......
बढ़तॆ चलॆ जा रहॆ हैं..
व्यूह-कॆन्द्र की दिशा मॆं,
यह जानतॆ हुयॆ कि...
आज का कॊई भी अभिमन्यु..
नहीं निकल सकता है
बाहर
इन आवश्यक्ताऒं कॆ
चक्रव्यूह सॆ,
वह श्रॆष्ठता का पुजारी द्रॊंण
दॆखना चाहता है अन्त..
आज कॆ हर बॆरॊजगार
अभिमन्यु का..
तभी तॊ वह मांग लॆता है..
निर्दॊष एकल्व्य का अंगूठा,
या फिर...
रच दॆता है व्यूह का जाल,
जानता है
वह
भली-भांति,
सत्ता सिंहासन पर बैठा
यह अंधा सम्राट..
क्या दॆखॆगा और क्या सु्नॆंगा
विनाश कॆ शिवाय,
जन्माँध नहीं है वह,
समूचा..
मदान्ध हॊ गया है,
पाकर गान्धारी रूपी कुर्सी का
मदमस्त यौवन-अंक..
आज जरासंघॊं कॆ भार सॆ
बॊझिल है धरा..
अब एक नहीं....
अनॆकॊं..
कान्हाऒं कॊ लॆना हॊगा
जन्म एक साथ..
इस धरा पर,
शायद....
तब कट सकॆंगी...
नन्द बाबा की बॆड़ियाँ..
मरॆंगॆ अनगिनत कंस और शिशुपाल..
बच सकॆगी द्रॊपदि्यॊं की लाज,
और....
रुक सकॆगा..
भारत माँ का...
चीरहरण...चीरहरण...चीरहरण....


"कवि-राजबुँदॆली"

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